Globaltoday.in|New Delhi|Dr. Yameen Ansari
दिल्ली की जनता को तय करना है कि यह देश महात्मा गांधी के ‘अहिंसा’ के रास्ते पर चलेगा या गोडसे के ‘गोली मारो’ वाले सिद्धांत पर आगे बढ़ेगा
– डा.यामीन अंसारी
चुनाव आते जाते हैं। सरकारें बनती गिरती हैं। राजनीतिक दलों और राजनेताओं के उतार चढ़ाव का सिलसिला भी जारी रहता है।
दिल्ली में भी विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें आई और गईं। कई छोटे बड़े नेता आए और गए। लेकिन इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि देश किस दिशा में जाएगा।
इन चुनावों में वाकई दिल्ली के मतदाताओं की अग्निपरीक्षा होने वाली है। क्योंकि दिल्ली की जनता को जागरुक, समझदार और धर्मनिरपेक्ष मतदाता माना जाता है। साम्प्रदायिक ताकतों को तमाम कोशिशों के बावजूद अपने इरादों में सफलता नहीं मिल सकी है।
दिल्ली का चुनाव किसी चुनौती से कम नहीं
इसलिए जनता के सामने विधानसभा चुनाव किसी कड़ी चुनौती से कम नहीं हैं, क्यों कि दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजों का असर सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में देखने को मिलेगा। वह इसलिए, क्योंकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अपना सारा कामकाज छोड़ कर खुद को महज़ 70 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव में झोंक दिया है। बात यहाँ तक होती तो भी ग़नीमत थी, लेकिन नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह और उनके सिपहसालारों (कैबिनेट मंत्रियों) से लेकर सांसदों और भाजपा के गली कूचों के नेताओं तक ने इस चुनाव में जिस बेशर्मी के साथ अपने चेहरे से सांप्रदायिकता का नक़ाब हटाया है, उसने हर सच्चे हिन्दुस्तानी के चेहरे पर परेशानी की लकीरें खींच दी हैं।
दिल्ली विधानसभा के इतिहास पर नज़र डालें तो दिल्ली विधानसभा का गठन पहली बार 7 मार्च 1952 को हुआ था। इस समय इसके सदस्यों की संख्या 48 थी। हालांकि 1956 में इसे हटा दिया गया। फिर सितंबर 1966 में विधानसभा की जगह 56 चयनित और 5 नामित सदस्यों वाली एक दिल्ली महानगर परिषद बना दी गई। हालांकि दिल्ली के प्रबंधन और ानसराम में परिषद की भूमिका सिर्फ एक सलाहकार का ही था और परिषद के पास कानून बनाने की कोई शक्ति नहीं थी। 1991 में केंद्र शासित दिल्ली को औपचारिक रूप से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हैसियत मिली। जब एक विधानसभा अस्तित्व में आई। 1993 में पहली बार यहां विधानसभा चुनाव हुए, जब भाजपा ने अपनी सरकार बनाई। अब छटी विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं। 70 सदस्यों वाली विधानसभा में आम आदमी पार्टी ने पिछले चुनाव में 67 सीटों पर आश्चर्यजनक सफलता हासिल की थी। भाजपा को केवल तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जबकि इससे पहले 15 वर्षों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी।
पिछली बार 7 फ़रवरी 2015 को विधानसभा चुनाव हुए थे। दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल(Arvind Kejriwal) के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी(AAP) पर जो विश्वास व्यक्त किया था, सर्वेक्षण बता रहे हैं कि उन्होंने काफी हद तक इस विश्वास को बनाए रखा है।
इससे पहले कांग्रेस(Congress) की शीला दीक्षित(Sheila Dixit) लगातार 15 वर्षों तक यहां की मुख्यमंत्री रहीं। उनके शासनकाल में दिल्ली में बड़े पैमाने पर विकास कार्य हुए। जिन्हें आज भी लोग उनके कार्यों के लिए याद करते हैं। यहां तक कि हाल के चुनाव अभियान में भी कांग्रेस ने उनके चेहरे को आगे किया है।
भाजपा(BJP) को भी दिल्ली में सरकार चलाने का मौका मिला, लेकिन वह दिल्ली की जनता की उम्मीदों पर पूरा नहीं उतर सकी।
1993 में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में लोगों ने भाजपा को मौका दिया था। मदन लाल खुराना(Madan Lal Khurana) मुख्यमंत्री बने, लेकिन पांच साल के कार्यकाल में दिल्ली ने भाजपा के तीन मुख्यमंत्री देखे।
दिल्ली बीजेपी में आंतरिक कलह का चोली-दामन का साथ रहा है, जो आज तक बरक़रार है। यही कारण है कि इस बार भी भाजपा किसी चेहरे को मुख्यमंत्री के रूप में सामने नहीं कर सकी है।
मदन लाल खुराना को हटाकर साहिब सिंह वर्मा(Sahib Singh Verma) को मुख्यमंत्री बनाया गया। उन्हीं साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा(Pervesh Verma) आजकल सांप्रदायिक राजनीति के चैंपियन बनने का प्रयास कर रहे हैं।
हालांकि साहब सिंह वर्मा को भाजपा में रहते हुए भी एक धर्मनिरपेक्ष चरित्र का राजनीतिज्ञ माना जाता था। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि साहब सिंह वर्मा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय(AMU) से शिक्षा प्राप्त थे। वह दिल्ली में मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम समुदाय के कार्यक्रमों में भी भाग लेते थे।
मैं खुद एक इफ्तार पार्टी में शामिल था, जिसमें साहिब सिंह ने भी शिरकत की थी। आज उन्हीं के बेटे दिल्ली में मस्जिदें गिराने तक की बात कर रहे हैं।
बहरहाल, 1998 के चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ दिल्ली में गंभीर नाराज़गी पाई जाती थी। इसलिए साहब सिंह को हटाकर अपनी साफ-सुथरी छवि के लिए प्रसिद्ध सुषमा स्वराज(Sushma Swaraj) को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
आखिरकार भाजपा की यह रणनीति भी काम नहीं आई। जब चुनाव परिणाम सामने आए तो कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो गई। शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं और फिर 15 वर्षों तक उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। खास बात यह रही कि दिल्ली में भाजपा को हर बार एक नया चेहरा सामने लाना पड़ा, लेकिन फिर भी सफलता नहीं मिल सकी।
2013 में एक आंदोलन से जन्म लेने वाली आम आदमी पार्टी(AAP) ने दिल्ली की राजनीति में प्रवेश किया और चुनाव परिणाम ने सबको हैरान कर दिया। हालांकि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका, लेकिन कांग्रेस के साथ आम आदमी पार्टी ने सरकार बना ली। बहरहाल यह बे-मेल गठबंधन सफल नहीं हो सका और दो महीने से पहले ही सरकार गिर गई। मरकज़ ने राष्ट्रपति शासन के साथ दिल्ली की कमान उपराज्यपाल के हाथों में दे दी। इस दौरान केंद्र और आम आदमी पार्टी का काफी टकराव भी देखने को मिला।
बहरहाल, फरवरी 2015 में विधानसभा के चुनाव हुए। पूरे देश में ज़बरदस्त मोदी लहर के साथ केंद्र में भाजपा की एक मज़बूत सरकार स्थापित हो चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने 70 सदस्यीय विधानसभा में क्लीन स्वीप कर दिया। आम आदमी पार्टी ने असाधारण सफलता प्राप्त करते हुए 70 में से 67 सीटों पर जीत का परचम लहराया।
आज एक बार फिर केंद्र में बीजेपी पहले से अधिक मजबूत स्थिति में सत्तारूढ़ है। इसके बावजूद भाजपा के हौसले पस्त नजर आ रहे हैं। एक तरफ आम आदमी पार्टी पांच साल के कार्यकाल में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, परिवहन और महिलाओं, बुजुर्गों के लिए किए गए अपने कार्यों द्वारा चुनाव अभियान में व्यस्त रही। वहीं भाजपा पाकिस्तान, मुसलमान, शाहीन बाग़, बिरयानी, और यहां तक कि गोडसे की पैरोकारी करते हुए ‘गोली मारो’ के नारे बुलंद करती रही। भाजपा के चुनाव अभियान में मोदी से लेकर अमित शाह और आदित्यनाथ से लेकर अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा जैसे नेताओं के बयान देख लें, अनुमान हो जाएगा कि एक हताश पार्टी के नेता कैसा व्यवहार करते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के सिलसिले में अब तक होने वाले सभी सर्वेक्षण भाजपा के खिलाफ और आम आदमी पार्टी के पक्ष में जा रहे हैं। यहां तक कि सरकार समर्थक समझे जाने वाले ‘टाइम्स नाउ’ के सर्वेक्षण में भी आम आदमी पार्टी की सरकार की शानदार वापसी और भाजपा को केवल 10 से 14 सीटें मिलने की संभावना जताई गई है।
टाइम्स नाउ के चुनावी सर्वे में दावा किया गया है कि सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी 54 से 60 सीटें जीतकर एक बार फिर क्लीन स्वीप कर सकती है। जबकि भाजपा के खाते में बस 10 से 14 सीटें जा सकती हैं। कांग्रेस को केवल 2 सीटें मिलने की संभावना है। मई 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर भाजपा को एकतरफा जीत मिली थी।
सर्वे के अनुसार, विधानसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी 52 प्रतिशत और भाजपा 34 प्रतिशत वोट हासिल करेगी। इन आंकड़ों की रोशनी में अगर 2015 में हुए विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो इस बार आम आदमी पार्टी को ढाई प्रतिशत वोटों का नुकसान होगा, जबकि भाजपा पिछली बार के मुक़ाबले पौने दो प्रतिशत से अधिक वोट हासिल कर लेगी। बहरहाल, यह तो 11 फरवरी को ही तय होगा कि किसकी सरकार बनेगी, लेकिन जनता की असल परीक्षा 8 फ़रवरी को होगी, जब वह अपने मताधिकार द्वारा दिल्ली और देश के भविष्य का फैसला करेंगे।
(लेखक इंक़लाब (उर्दू) के स्थानीय संपादक हैं)
yameen@inquilab.com
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