फारसी में एक कथन है ‘ जवाब ए जाहिलां खामोशी बाशद’ यानी जाहिल की बात का जवाब खामोशी है। मुझे इस कथन से ही ऐतराज़ है क्योंकि मेरा मानना है कि जाहिलों की जिहालत वाली बातों का जवाब देना चाहिए और भरपूर अंदाज़ में दिया जाना चाहिए। एक बात अस्पष्ट करदुं की जाहिल केवल वही नहीं होते जिन्हें अक्षर ज्ञान नहीं होता, वी भी जाहिल ही कहलाते हैं हो पढ़े लिखे होने के बावजूद किसी के प्रति घटिया सोच रखते हैं। पितृ सत्ता के नशे में चूर महिला विरोधी मर्द भी इसी कैटेगरी में आते हैं।
चलिए बात शुरू करने से पहले थोड़ा सा इतिहास में झांकते हैं। नहीं ज़्यादा पूराना इतिहास या महाभारत काल में नहीं झांकेंगे जिस पर बने महाभारत सीरियल में मुकेश खन्ना जी ने भीष्म पितामह का किरदार अदा किया था, वह किरदार जो महिलाओं को अपनी जागीर समझने की सोच के तहत हुए द्रोपदी के चीरहरण पर खामोश तमाशाई बना बैठा था। में अभी आपको सत्तर के दशक में लेकर जाना चाहूंगा।
यह उस समय की बात है जब अमेरिका और वियतनाम के बीच खूनी युद्ध हो रहा था और खुद अमेरिकी जनता युद्ध के विरूद्ध सड़कों पर उतर आई थी। वियतनाम युद्ध के विरोध में और सिविल अधिकारों के लिए छेड़े गए इस आंदोलनों में महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया था। मर्दों के कांधे से कांधा मिलाकर आंदोलन में भाग लेने वाली उन महिलाओं को एक समय पर यह एहसास हुआ कि आंदोलन में शांति, न्याय और समता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साथी पुरुषों का उनके प्रति जो व्यवहार था वह आम और घटिया मानसिकता रखने वाले पुरुषों से अलग नहीं था। ये वे महिलाएं थीं जो सदियों से अपने लिए तय कर दी गई रवायती भूमिकाओं के दायरों में कैद नहीं रहना चाहती थीं। वे महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट मतलब सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझने वाली सोच को उखाड़ फेंकने की बात कर रही थीं।
घर हो या बाहर, मर्द शोषक हैं और महिलाएं शोषित
लेकिन, उनकी मुखरता पुरुषों को हजम नहीं हो पा रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें आहिस्ता आहिस्ता आंदोलन से दूर करने की कोशिश शुरू हो गई। वियतनाम-युद्ध विरोधी मुहिम का झण्डा थामे संगठन के नेतृत्व ने उनसे कहा कि आंदोलन में स्त्रियों को पुरुषों के पीछे रहना चाहिए। दूसरे शब्दों में, वे भी उनको भोग की वस्तु और पैरोकार के रूप में ही ले रहे थे, जबकि उन महिलाओं ने यह सोचा था कि शोषण और अन्याय के खिलाफ मुहिम चलाने वाले पुरुषों की मानसिकता आम आदमी की मानसिकता से अलग होगी और कम-से-कम आंदोलन में वे उन्हें अपने बराबर का पार्टनर समझेंगे। इसी कड़वे अनुभवों से वे इस नतीजे पर पहुँचीं कि घर हो या बाहर, मर्द शोषक है और महिलाएं शोषित। यहीं से Patriarchy शब्द का आविष्कार हुए जिसे हिंदी में पितृ सत्ता कहते हैं। समाजी दार्शनिक केट मिलेट द्वारा आविष्कृत इस शब्द को अगर आम भाषा में समझाना हो तो इसका सीधा सा मतलब होता है महिलाओं को दोयम दर्जे का प्राणी समझने की सोच।
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ज़माना बदल गया। महिलाओं ने हर फील्ड में अपना लोहा मनवाया और अपनी कामयाबी के झंडे गाड़े। लेकिन अबतक कुछ नहीं बदला तो कुछ मर्दों की मानसिकता नहीं बदली । आज अगर मुझे केट मीलेट याद आए तो इसका सेहरा मुकेश खन्ना जी को जाता है।मुकेश खन्ना का मानना है कि महिलाओं का घर से बाहर निकलना ही हर समस्या की जड़ है। मुकेश खन्ना ने इस घटिया बयान को मी टू अभियान से जोड़ते हुए कहते हैं , “ये मी टू की प्रॉब्लम तब शुरू हुई जब महिलाएं घर से बाहर निकलकर काम पर जाने लगीं। महिलाएं पुरुषों संग कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहती हैं, लेकिन वे ये नहीं समझती है कि ऐसा करने से उनके बच्चे को सबसे अधिक सफर करना पड़ेगा। बच्चा एक आया के साथ रहने को मजबूर होता है। आया के साथ बैठकर बच्चा ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे सीरियल देखता है”।
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मुकेश जी को मालूम होना चाहिए कि महिलाओं में इतनी शक्ति होती है कि एक तरफ वो अपनी पारिवारिक जिममेदारियां भी निभाती हैं तो दूसरी तरफ अपना कैरियर भी बना सकती हैं।
उन्हें यह फर्क नहीं पड़ता कि मुकेश खन्ना जैसे मिˈसॉजिनिस्ट् लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। मुझे यह तो पता नहीं है कि उन्हीं यह घटिया बयान क्यों दिया है लेकिन यह बात अब दुनियां को पता चल गई है कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले में रिया चक्रवर्ती के खिलाफ खबरिया चैनलों में घूम घूम कर उन्हों ने जी बॉलीवुड की तथाकथित नुमाइंदगी के नाम पर जो बयानबाजियां की थीं, उसका मकसद किसी को इंसाफ दिलाना नहीं था बल्कि मिˈसॉजिनिस्ट् यानी नारी विरोधी सोच रखने का नतीजा था। उम्मीद है आगे से लोग सोच के नाम पर शोच करने का प्रयास नहीं करेंगे।