क्या अब दिल के अरमां आंसुओं में नहीं बहेंगे?
कहीं तीन तलाक़ का अदध्यादेश लागु करने में भी विमुद्रीकरण जैसी जल्दबाज़ी तो नहीं हो रही? कहीं रक्षा में हत्या का पाप तो नहीं हो रहा? क्या अब दिल के अरमां आंसुओं में नहीं बहेंगे? या GST की तरह जब ज़ख्म रिसेंगे तो मरहम लगाते चलेंगे?
१. पति को जेल भेज कर क्या वो स्त्री उसी आदमी की ब्याहता रहेगी?क्या इस दौरान उसे ब्रहमचारिणी बन कर रहना होगा?
१.सज़ा के वक़्त अगर औरत इस ब्याह से निजात पा कर आगे बढ़ जाना चाहे तो क्या होगा? पिछली शादी से जन्मे बाल बच्चों का क्या होगा?
२. जेल से उसका शौहर कैसे भरपाई देगा? और अगर वो ज़मानत पे छूटा भी, तो क़ानून औरत को क्या सुरक्षा देगा?
३. सज़ायाफ्ता शौहर जब लौटेगा तो वो एक दागी मुजरिम होगा? क्या वो अब अपनी पत्नी से निभाएगा? भरपाई कहाँ से लाएगा?
४. क्या सरकार ऐसी पीड़ित महिलाओं के लिए जिनके शौहर को उनकी शिकायत पर सज़ा हो गयी है, कोई भरपाई या भत्ता देगी? या यूँ ही पुरुष प्रधान समाज के रहम ओ करम पे छोड़ देगी? अगर उसका सामजिक बहिष्कार हो रहा हो तो उस अबला नारी के लिए क्या प्रावधान होगा?
५. एक तरफ़ा परित्याग के लिए आम क़ानून में परित्यक्ता पर कौन सा जुर्म या फौजदारी का मामला बनता है?
६. पिछली जमुआरी से अब तक तीन तलाक़ के ४३० मामले सामने आये है? क्या इस दौरान हुए desertions का कोई आंकड़ा भी है?
७. क्या ऐसा क़ानून मर्दों को बिना तलाक़ दिए ही desertion के लिए नहीं उकसायेगा? ख़ास कर मुस्लिम समाज में जहां शौहर फिर से शादी रचा कर वैवाहिक जीवन का सुख भोग सकता हो?
८. इस्लामिक देश जहां मुसलामानों की अक्सरियत हैI वहाँ अक्सरियत ही एक आम राय बना कर सामाजिक क़ानून लाती है? क्या एक सेक्युलर जम्हूरियत की अक्सरियत अपनी माइनॉरिटीज के ख्यालों में तब्दीली लाये बिना ही उन पर फौजदारी का क़ानून ठोक देगी?
-नीलेन्दु सेन
लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं