हिंदी सिनेमा में उनके बुआ को बेटे बृजेंद्र गौड़ लेखक के रूप में नाम कमा चुके थे। लखनऊ के रहने वाले योगेश कई साल से रोजगार के लिए लखनऊ में ही मेहनत कर रहे थे लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही थी। 18 साल की उम्र में बाप की मौत हो गयी थी लिहाज़ा दो बहनो और मां की ज़िम्मेदारी निभाने वाला उनके सिवा दुनिया में कोई नहीं था। योगेश के स्कूली दोस्त सत्य प्रकाश ने उन्हें राय दी की मुंबई में रोजगार मिल सकता है और फिर तुम्हारे भाई साहब भी वहां हैं। दोनो दोस्तों ने घर से किराए के पैसे इकट्ठा कर मुंबई की ट्रेन पकड़ ली। यह बात है 1960 की।
मुंबई पहुंच कर बृजेंद्र गौड़ से मिल कर योगेश को मालूम हुआ कि मुंबई लखनऊ जैसा नहीं है। यहां रिश्ते नाते की अहमियत नहीं होती। हर प्यासे को खुद कुंआ खोदना होता है। भाई से किसी भी तरह की मदद नहीं मिली तो योगेश हताश हो गए लेकिन सत्यप्रकाश को इस हालात पर बहुत ग़ुस्सा आया। उसने योगेश से कहा कि अब तुम लखनऊ नहीं लौटोगे, यहीं काम करोगे और फिल्मों में ही काम करोगे। योगेश ने भाग दौड़ शुरू की लेकिन उन्हें खुद ही नहीं पता था कि फिल्मों मे उन्हें क्या काम करना चाहिये। सत्यप्रकाश जानता था कि योगेश लिख सकते हैं वो कालेज के दिनो में योगेश की लिखी कुछ चीज़ें पढ़ चुका था।
भावुक दिल वाले योगेश को भी लगा कि वे गीत लिख सकते हैं। फिर योगेश ने संगीतकारों के दरवाज़ों को खटखटाना शुरू किया। लेकिन दरवाजे तो खुलते ही नहीं थे। हर बार नाकाम होने के बाद जब लौटते तो अपने एहसास को शायरी की जबान में दर्ज करने की कोशिश करते। अधिकतर सी ग्रेड की फिल्मों में संगीत देने वाले राबिन बनर्जी ने योगेश की शायरी सुन कर उनसे कहा कि अगर उन्हें मौका मिला तो वे योगेश से गीत लिखवाएंगे। खुद राबिन बनर्जी के पास उस समय काम नहीं था। योगेश रोज उनके पास जा पहुंचते और योगेश की लिखी लाइनो पर राबिन बनर्जी धुन बनाया करते। इस तरह दोनो ने मिल कर कई गीत तैयार कर लिये।
फिर एक दिन ऐसा भी आया कि राबिन बनर्जी को एक फिल्म में संगीत देन का मौका मिला। उन्होंने फिल्म के लिये योगेश के छह गीतों का इस्तमाल किया और हर गीत के लिए 25 रूपए प्रति गीत के हिसाब से 150 रूपए दिये। योगेश की ये पहली कमाई थी। फिर तो राबिन मुखर्जी को जब जब मौका मिला योगेश के गीतों का इस्तमाल फिल्मों में किया जिसमें कई गीत तो बेरोजगारी के दौर में दोनो मिल कर तैयार कर चुके थे।
योगेश को राबिन के साथ सी ग्रेड की फिल्में ही मिल रही थीं। जैसे राकेट टार्जन (1963), मारवल मैन (1964), फ्लाइंग सर्कस (1965) रुसतम कौन (1966)। राबिन बनर्जी के योगेश की गाड़ी चल निकली। इसी बीच राबिन बनर्जी ने योगेश का परिचय संगीतकार सलिल चौधरी से करवाया।
सलिल चौधरी योगेश के गीतों से प्रभावित हुए। उन्होंने योगोश से फिल्म “मिट्टी के देव” के लिए दो गीत लिखवाए लेकिन फिल्म डब्बा बंद हो गयी। योगोश हताश हो गए लेकिन किस्मत तो सबकी पलटती है। इसी डिब्बा बंद फिल्म का एक गीत सलिल चौधरी को इतना पसंद था कि उन्होंने फिल्म आनन्द का संगीत देते समय उन्होंने फिल्म के निर्देशक ऋषीकेश मुखर्जी से योगेश को गीत को शामिल करने का अनुरोध किया। ऋषिकेश मुखर्जी राजी हो गए वह गीत था “ कहीं दूर जब दिन ढल जाए”। इसी फिल्म में योगोश का एक और गीत शामिल किया गया। “ जिंदगी कैसी है पहेली हाय “।
आनन्द की सफलता ने योगेश के लिए फिल्मों कई अवसर बनाए। सलिल चौधरी ने योगेश की हमेशा परवाह की। उन्हें जो भी फिल्में मिलतीं उनमें योगेश से एक दो गीत ज़रूर लिखवाते थे। 1974 में फिल्म ‘रजनी गंधा’ में सलिल चौधरी ने योगेश के दो गीतों की बेहद मधुर धुने तैयार कीं। ये दो गीत थे “ कई बार यूं भी होता है ये जो मन की सीमा रेखा है “ और “ रजनी गंधा फूल तुम्हारे “।
1975 में योगेश और सलिल चौधरी की जोड़ी ने फिल्म छोटी सी बात में एक बार फिर बेहद कर्णप्रिगीत दिये जैसे “ जानेमन जानेमन तेरे दो नयन “ और “ ना जाने क्यों होता है ये ज़िंदगी के साथ”। इस बीच 1975 में ही फिल्म ‘मिली’ में योगेश ने यादगार गीतों की झ़ड़ी लगी दी “ मैने कहा फूलों से कि हंसो तो वो खिलखिला के हंस पडे”, “ बड़ी सूनी सूनी है… ज़िंदगी ये ज़िंदगी “ और “ आए तुम याद मुझे गाने लगी हर धड़कन “।
इतने लाजवाब गीत लिखने के बावजूद योगेश गीतकारों की कतार में कभी टाप पर नहीं पहुंच सके। वे संकोची स्वभाव के थे और फिल्मी पार्टियों में खुद को अनफिट पाते थे। संबंध बनाने के मामले में योगेश काफी कमज़ोर थे इसलिये बड़े और नामी संगीतकारों के साथ काम करने के कम मौके ही मिल पाए। फिर भी जितने मौके मिले उनमें योगेश ने अमर गीतों की रचना कर डाली।
हिंदी फिल्म संगीत का इतिहास योगश के इन अमर गीतों के बिना अधूरा है। याद कीजिए “कहीं दूर जब दिन ढल जाए”, “जिंदगी कैसी है पहेली हाय” (आनन्द), “आए तुम याद मुझे गाने लगी हर धड़कन”, “बड़ी सूनी सूनी सूनी है जिंदगी ये जिंदगी” (मिली), “कई बार यूं भी होता है ये जो मन की सीमा रेखा है” (रजनी गंधा), “ना जाने क्यों होता है ये ज़िंदगी के साथ, अचानक ये मन किसी के जाने के बाद करे फिर उसकी याद छोटी छोटी सी बात’ (छोटी सी बात) और “ना बोले तुम ना मैने कुछ कहा मगर ना जाने ऐसा क्यों लगा” (बातों बातों में) या फिर बारिश पर तैयार किये गए सर्वश्रेष्ठ फिल्मी गीतों में से एक “ रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन “ (मंज़िल), जैसे गीत योगेश की कलम से ही निकले।
बहुत से लोगों को ज़िंदगी भर संघर्ष करना पड़ता है। योगेश को भी यही करना पड़ा। फिल्मों में काम मिलना कम होने पर उन्होंने करीब 150 टीवी धारावाहिकों में गीत लिखे। हालात बेहतर हुए तो एक दवा के रियेकशन की वजह से योंगश चार साल तक बिस्तर पर पड़े रहे। जब वे ठीक हुए तब तक फिल्मी दुनिया ने उन्हें लगभग भुला दिया और आखिरकार 29 मई 2020 को योगेश जिंदगी के हर संघर्ष से आजाद हो कर हमेश के लिये दूसरी दुनिया में चले गए।
लेखक -इक़बाल रिज़वी, वरिष्ठ पत्रकार,लेखक और कहानीकार