मानव जीवन के लिए स्वतंत्रता उतनी ही आवश्यक है जितना कि उसके लिए भोजन पानी आवश्यक है। जिस तरह खुली हवा में सांस लेना हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध आधिकार है उसी प्रकार अपने विचार प्रकट करने से लेकर खान- पान, पहनना-ओढ़ना भी उसका निजी मामला है। लेकिन एक सामाजिक व्यक्ति के लिए कुछ मर्यादाएं एवं सीमाएं निश्चित होनी ही चाहियें जिससे समाज में समानता व समरसता का माहौल बना रहे।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसे समाज में बने रहने के लिए अपना आचरण, रखाव अपने आस-पास के परिवेश के हिसाब से ही रखना होगा। हम अलग- अलग विचार धारा धर्म व पंथ से जुड़े हो सकते हैं लेकिन, नैतिकता हर धर्म का मूल मंत्र होना चाहिए। दूसरों के प्रति उदारता, प्रेम व परोपकार की भावना मानव जीवन के आवश्यक गुण होने के कारण ही उसे सर्व श्रेष्ठ कहा गया है। कुरान में अल्लाह ताला फरमाता है तुम वह बेहतरीन उम्मत हो जो भलाई का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो।
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आज़ादी का इस्तेमाल और नैतिक मूल्य
ईश्वर ने जहाँ मनुष्य के अधिकार सुनिश्चित किए हैं उसे अपना अच्छा व बुरा समझने की आज़ादी दी है वहीं, उसके दाइत्व और सीमाएं भी निर्धारित की हैं। उसने मनुष्य को बेलगाम नहीं छोड़ा है। मनुष्य को बताया गया है कि यदि वह अपनी आज़ादी का इस्तेमाल नैतिक मूल्यों के अनुसार करेगा तो समाज में शांति और समृद्धि आएगी अन्यथा भ्रष्टाचार और असंतुलन पैदा होगा और मनुष्य को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। स्वछंदता एक दायरे में ही स्वीकार होगी जहाँ एक की आज़ादी किसी दूसरे को नुकसान न पहुंचाती हो।
घर से बाहर खुशियों की तलाश
लैंगिक समानता और आज़ादी के नाम पर आजकल महिलाएं “मेरा शरीर” “मेरी मर्ज़ी” जैसे खोखले नारे का शिकार होकर अपने घर परिवार की अवहेलना कर घर से बाहर ख़ुशियाँ तलाश रही हैं। विवाह जैसी सामाजिक संस्था का तिरस्कार आम बात होती जा रही है। विवाह महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच माना जाता था लेकिन, आजकल अधिकतर महिलाएं लिव इन रिलेशनशिप एवं समलैंगिकता जैसे अन औपचारिक संबधों के प्रति आकर्षित हो रही हैं। यह हास्यास्पद ही है कि सरकार भी ऐसे रिश्तों को मान्यता दे चुकी है।
शिक्षण संस्थानों का उन्मुक्त वातावरण और सह शिक्षा का प्रचलन भी लड़कियों को आज़ादी के सपने दिखाकर उनका शोषण कर रहा है। प्रशासन को कम कपड़े पहनने वाली लड़कियों से तो कोई आपत्ति नहीं है लेकिन, कोई लड़की शर्म व हया के साथ शिक्षा ग्रहण करना चाहती है तो मान्य नहीं है। देखा यह जा रहा है जितना महिला आज़ादी का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उतनी ही महिलाओं के प्रति क्रूरता बढ़ रही है। आज वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। पूंजीवाद ने अपने हितों के लिए महिलाओं को पूरी तरह बाज़ार वाद के हवाले कर दिया है।
आज़ादी के इस छदम से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है महिलाएं अपने अस्तित्व को पहचानें। अपनी मर्यादाओं व परंपराओं की तरफ़ पलटें। ईश्वर ने उन्हें घर की ज़ीनत बनाया है। अपने दाइत्वों का निर्वहन करके ही पारिवारिक संस्था को बचा सकती हैं और अपनी स्थिति भी सुदृढ़ कर सकती हैं। तभी एक बेहतर समाज वजूद में आ सकता है।
लेखिका: नय्यर हसीन,स्वामी विहार,हल्द्वानी, नैनीताल
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.)
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