इन दिनों जिस तरह मुसलमानों और हिंदुओं में एक दूसरे के पर्व-त्योहारों के वहिष्कार का अभियान चल रहा है, उसे देखकर मुझे बचपन के दिन याद आते हैं। तब मेरी स्वर्गीया मां के सुबह के सपनों में देवी-देवता बहुत आते थे। उनकी बताई हुई बातें अक्सर सच भी हो जाती थी। उसे इस्लाम के बारे में कुछ पता नहीं था, लेकिन एक बार ख़ुद अल्ला मियां सपने में आकर उसे कुछ हिदायतें दे गए। तब से हर रमज़ान में वह पांच रोज़े रखने लगी। दिन भर भूखा-प्यासा रहने के बाद शाम को नहा-धोकर नमाज़ की जगह एक सौ आठ बार अल्लाह का नाम लेती थी। हाथ फैलाकर दुआ मांगने के बाद उसका इफ़्तार होता था। इफ़्तार की सामग्री थी उबले हुए शकरकंद और कोई एक मौसमी फल। इससे ज्यादा की औकात थी नहीं। रात में सहरी के वक़्त तक जागकर देवी-देवताओं के भजन गाती। ईद के पहले अपने बचाए पैसों से बच्चों के कुछ कपडे खरीद कर रख लेती। हमारे
कस्बे गोपालगंज में पीर बाबा का एक छोटा मज़ार है। ईद की सुबह पूजा-पाठ के बाद वह सीधे उस मज़ार पर पहुंच जाती थी। वहां मौजूद दो-चार फटेहाल बच्चों को नए कपडे पहनाने के बाद मां की आंखों की चमक देखते बनती थी। यह शायद उसका ज़कात होता था। कई लोगों ने उसे चेतावनी दी कि बिना रमज़ान का क़ायदा जाने उसका ऐसे रोज़ा करना जायज़ नहीं है। इससे अल्ला मियां भी नाराज़ हों जाएंगे और अपने भगवान जी भी। मुझे भी एक साथ पूजा और नमाज़ का उसका यह सिलसिला पसंद नहीं था। इसके बावजूद मां अपनी ज़िद पर अड़ी रही। आज पर्व-त्योहारों में आई मज़हबी कट्टरता और आडंबर को देखने के बाद लगता है कि मां सही थी। उसकी पीढ़ी के बाद पर्व-त्यौहारों का वह भोलापन भी चला गया।
तुम जहां कहीं हो, ठीक हो न मां ? मुझे भरोसा है कि वहां तुमसे कोई भी नाराज़ नहीं होगा-न अल्ला मियां और न ही भगवान जी। यहां के लोगों की परवाह मत करो ! कुफ़्र ही सही, वहां पूजा और नमाज़ में पहले जैसा घालमेल करती रहना !