पूरी दुनिया में अपने हीरों के लिए मशहूर आंध्र प्रदेश का इलाका गोलकुंडा। वहीं के थे चार लड़के। चारों लड़के आपस में दोस्त थे। चारों में से एक दोस्त जब भी एक डायलॉग बोलता तो बाकी तीनो दोस्त हंस पड़ते लेकिन डायलॉग बोलने वाले को इसकी परवाह नहीं होती थी और वो डायलॉग इस तरह था – गोलकुंडा को दो चीज़ों के लिये हमेशा याद किया जाएगा, एक तो हीरों के लिए और दूसरा हामिद अली खान के लिए। दरअसल उसी लड़के का नाम था हामिद अली खान।
दो-तीन फिल्मों में ही वे हामिद अली खान नाम धारण कर पाए इसके बाद उनका फिल्मी नाम अजित(Ajit) रखा गया। बाकी जिंदगी हामिद अली खान, अजित के नाम से सितारा बन कर चमकते रहे.
इस बात को ज़माना गुज़र गया। गोलकुंडा अपने हीरों पर और अपने एक शेर हामिद अली खां पर आज भी फख्र कर रहा है। 27 जनवरी 1922 को पैदा हुए हामिद अली खां फिल्मों में हाथ आज़माने जब घर से मुंबई गए तो ‘हामिद अली खां’ थे लेकिन दो-तीन फिल्मों में ही वे हामिद अली खान नाम धारण कर पाए इसके बाद उनका फिल्मी नाम अजित रखा गया। बाकी जिंदगी हामिद अली खान, अजित के नाम से सितारा बन कर चमकते रहे.
उन्हें फ़िल्म “बड़ी बात (1944)” में पहली बार चंद लम्हों के लिये पर्दे पर दिखने का मौका मिला। इसके बाद करीब 88 फिल्मों में हीरो की हैसियत से काम किया। उन्होंने नूतन और नरगिस को छोड़ उस दौर की सभी हिरोइनो के साथ काम किया। इस दौरान सहायक अभिनेता के रूप में दिलीप कुमार के साथ “नया दौर” और “मुगले आज़म” में अजित ने यह भी साबित कर जिया कि वे अभिनय करने में कमजोर नहीं हैं लेकिन उनकी बदकिस्मती रही कि सहायक अभिनेता रूप में फिर उन्हें कोई यादगार रोल नहीं मिला। धीरे धीरे अजित के पास सिर्फ़ बी ग्रेड फ़िल्में ही बचीं।
उन्होंने हवा का रूख भांप लिया और इससे पहले की रूपहले पर्दे से वो खारिज किये जाते उन्होंने फिल्म सूरज से विलेन का चोला पहल लिया। लेकिन उनके सिर पर विलेन का ताज सजा 1973 में आयी फिल्म ज़ंजीर से। इसमें धर्मपाल तेजा का किरदार जिस नफासत और अनोखेपन से अजित ने निभाया वो बेमिसाल था। लेकिन उनके ताज में कोहिनूर जड़ा गया 1976 में आयी फिल्म कालीचण से। इस फ़िल्म का एक डायलाग ” सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है “ ऐसा अमर हुआ कि पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसका लुत्फ ले रही हैं।
क़ीमती सूट, हाथ में सिगार, आंखों में शातिरपन लिये मोहबब्त से बात करने वाला एक शख्स जिसका चेहरा पत्थर की तरह सख्त रहता था। अजित की इसी छवि ने खलनायकी को एक नया आयाम दिया। अधिकतर वे ऐसे व्यापारी या समाज सेवक के रूप में सामने आते थे जो पर्दे के पीछे हर बुरा काम करता है। शब्दों को खास अंदाज में चबा चबा कर बोलने की उनकी विशेष शैली फिल्म यादों की बारात, जुगनू, वारंट, कहानी किस्मत की, संग्राम और चरस सहित पचासों फिल्मों में देखी जा सकती है। अजित पर्दे पर बेहद सुकून के साथ अपने गुर्गों के ज़रिये सारे काम करवाते थे। खुद लड़ाई करने में वो यकीन नहीं रखते थे। मार पीट और कत्ल जैसे काम वो उनके गुर्गें ही करते थे। वे ऐसे खलनायक के रूप में पर्दे पर नजर आते थे जिसके आगे हीरो की चमक भी धुंधलाने लगती थी। खलनायकी के दौर बदलते रहे लेकिन अजित को अपना अंदाज़ बदलने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी। मगर एक दिन उन्हें अभिनय से रिटायर होने की जरूरत महससू होने लगी।

करीब 40 साल फिल्मों में काम करने के बाद धीरे धीरे अजित को एहसास होने लगा कि वक्त बहुत बदल गया है। फिल्म की शूटिंग के दौरान अब सीनियर लोगों को वो इज्जत नहीं मिलती जिसके वो हकदार हैं। अपने कैरियर के उरूज पर पहुंच चुके अजित सेल्फ़ रिस्पेक्ट से समझौता करने को राज़ी नहीं थे। साल 1984 में एक दिन वो बहुत ख़ामोशी से अपने वतन हैदराबाद लौट गए।
जब वो फ़िल्मों से दूर हो गए तब उनके बोल हुए डॉयलाग सबसे ज़्यादा मकबूल हुए। तब तक चुटकुलों की दुनिया में संता बंता का दौर नहीं शुरू हुआ था। धीरे धीरे फिल्मों में अजित के बोले गए डॉयलाग की तर्ज पर चुटकुले गढ़े जाने लगे। अजीत के बोलने के अंदाज़ पर आज भी आपको ये सुनने को मिल जाएगा – “मोना कहां है सोना”, “माइकल तुम साइकल पे आओ”, “थोड़ी ही देर में हमारा जहाज़ हिंदुस्तान से बहुत दूर चला जाएगा”। अजित एक मिथ बन चुके थे लेकिन हैदराबाद में अपने फार्म हाउस की तन्हाई में सुकून की ज़िंदगी गुजार रहे इस शख्स को एपनी लोकपरियता का एहसास ही नहीं था।
जबकी मुंम्बई की फ़िल्मी दुनिया में कई लोगों को लगा कि शायद अजित मर चुके हैं। लेकिन लॉयन मरा नहीं था। हां वो अपने आप में सिमटा हुआ वक्त की तेज़ रफ़्तार को देख रहा था। हैदराबाद में ज़िंदगी का हर सुख चैन अजित के पास था लेकिन हैदराबाद में मुंबई की फिल्मी दुनिया नहीं थी। जिसे वो शिद्दत से मिस कर रहे थे। और फिर एक दिन अजित ने दोबारा बड़े पर्दे का रूख कर लिया. वो जिस तरह अचानक चले गए थे उसी खामोशी से अचानक लौट भी आए. “पुलिस अफ़सर”, “जिगर”, “आतिश” शक्तिमान, और “बेताज बादशाह”सहित कुछ फिल्में करते करते अजित का स्वास्थ्य जवाब देने लगा. “क्रिमनल” उनकी अंतिम फिल्म थी. 22 अक्टूबर 1998 को अजित का निधन हो गया लेकिन लायन नहीं मरा वह आज भी लोगों की चर्चाओं में ज़िंदा है।
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