ज्ञानवापी पर फैसला पूजा स्थल अधिनियम 1991 का उल्लंघन- शाहनवाज़ आलम

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उन्होंने संदेह जताया है कि यह सब पूजा स्थल अधिनियम 1991 को बदलने की साज़िश का हिस्सा है।

  • असलम भूरा बनाम भारत सरकार मामले के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के भी विरुद्ध है यह निर्णय
  • सुप्रीम कोर्ट निचली अदालतों को अपने ही फैसलों के खिलाफ़ जाने की छूट देकर क्या संदेश देना चाहता है- शाहनवाज़ आलम
  • पूजा स्थल अधिनियम को बदलने की साज़िश का हिस्सा है यह फैसला

लखनऊ, 22 जुलाई 2023: अल्पसंख्यक कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने बनारस ज़िला अदालत द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद के एएसआई द्वारा सर्वे के फैसले को पूजा स्थल अधिनियम 1991 का उल्लंघन और असलम भूरा बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए फैसले की अवमानना बताया है। उन्होंने इसे स्थापित क़ानून के विरुद्ध फैसला बताते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि सुप्रीम कोर्ट निचली अदालतों को अपने ही फैसलों के खिलाफ़ जाने की छूट दे कर क्या संदेश देना चाहता है। उन्होंने संदेह जताया है कि यह सब पूजा स्थल अधिनियम 1991 को बदलने की साज़िश का हिस्सा है।

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 स्पष्ट स्पष्ट करता है कि 15 अगस्त 1947 तक धार्मिक स्थलों का जो भी चरित्र था वो यथावत रहेगा। इसे चुनौती देने वाले किसी भी प्रतिवेदन या अपील को किसी न्यायालय, न्यायाधिकरण (ट्रीब्युनल) या प्राधिकार (ऑथोरिटी) के समक्ष स्वीकार ही नहीं किया जा सकता।

इसीतरह 14 मार्च 1997 को मोहम्मद असलम भूरे वर्सेस भारत सरकार (रिट पिटीशन नंबर 131/1997) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि काशी विश्वनाथ मंदिर, ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह की स्थिति में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। अपने पुराने निर्णय (रिट पेटिशन 541/1995) का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह भी कहा था कोई भी अधिनस्त अदालत इस फैसले के विरुद्ध निर्देश नहीं दे सकती। इसलिए बनारस की निचली अदालत द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का एएसआई से सर्वे कराने का आदेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना है।

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि वर्ष 1937 में बनारस ज़िला न्यायालय में दीन मोहम्मद द्वारा दाखिल वाद में ये तय हो गया था कि कितनी जगह मस्जिद की संपत्ति है और कितनी जगह मंदिर की संपत्ति है। इस फैसले के ख़िलाफ़ दीन मोहम्मद ने हाई कोर्ट इलाहाबाद में अपील दाखिल की जो 1942 में ख़ारिज हो गयी थी। इसके बाद प्रशासन ने बैरिकेटिंग करके मस्जिद और मंदिर के क्षेत्रों को अलग-अलग विभाजित कर दिया था।

उन्होंने कहा कि भाजपा के सत्ता में आने और पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देने की याचिका के स्वीकार होने के बाद ही से फव्वारे को शिवलिंग क्यों बताया जाने लगा। जिसकी हर टीवी चैनल ने अपनी आस्था के हिसाब से अलग-अलग लंबाई और चौडाई बताई थी। जबकि रिपोर्ट कथित तौर पर अदालत को सौंपी गयी थी। लेकिन अदालत ने मीडिया द्वारा फैलाये जा रहे झूठ और उन्माद पर रोक लगाने की कोशिश नहीं की थी। यह सब स्थितियां साबित करती हैं कि मामला आस्था का नहीं बल्कि राजनीति का है।

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि भाजपा शुरू से ही पूजा स्थल अधिनियम 1991 की विरोधी रही है क्योंकि इसी क़ानून के कारण देश में बाबरी मस्जिद जैसा कोई दूसरा सांप्रदायिक मुद्दा नहीं बन पाया। इसे खत्म करने के लिए भाजपा के एक नेता से सुप्रीम कोर्ट में याचिका डलवाई गयी जिसे आश्चर्यजनक तरीके से स्वीकार भी कर लिया गया। जिसके बाद बनारस, बदायूं की जामा मस्जिद और ताजमहल तक को मन्दिर बताने वाली याचिकाएं डलवाई गयीं जिसे निचली अदालतों ने स्थापित क़ानून के खिलाफ़ जा कर स्वीकार कर लिया।

उन्होंने कहा कि ऐसी धारणा मजबूत होती जा रही है कि जो काम भाजपा सरकार ख़ुद नहीं कर पा रही है उसे अपनी विचारधारा से सहमत न्यायपालिका के एक हिस्से से करवा रही है। यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इसलिए इस प्रवित्ति के खिलाफ़ जनता को मुखर होना पड़ेगा।

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