आदिवासी इलाकों में मौत कहां से आ जाएगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हैछत्तीसगढ़ के सुकमा जिले को ऊंची नीची जमीन, पहाड, जंगल और नदी नाले प्राकृतिक रूप से सुन्दर बनाते हैं। उसी के मिनपा गाँव में सात दशकों के बाद स्थापित हुआ उप स्वास्थ्य केंद्र। वहां के लोग डॉक्टर अस्पताल नर्स वग़ैरा कुछ भी नहीं जानते। झाड-फूंक करने वाला ही उनका डाक्टर है।
सैकड़ों साल पुरानी परंपराएं हैं जिन पर उनका अगाध विश्वास है। प्रशासन की पहुंच न होने की वजह से मार्डन मेडिसिन सिस्टम एवं सरकर की विकास संबंधी योजनाओं से वहां के लोग नहीं जुड़ पाए।
शोर शराबे से दूर इस शांत आदिवासी इलाक़े में मौत कहाँ से आ कर सामने खड़ी हो जायगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।
इस साल अप्रैल के पहले हफ़्ते में सेना के 22 जवान सुकमा जिला में बारूद बिछा कर किये गए हमले में शहीद और लगभग इतने ही ज़ख़्मी हो गए थे। जबकि पिछले साल मार्च में मिनपा गाँव में जहाँ स्वास्थ केंद्र बनाया गया है। करीब 250 मावादियो ने 17 जवानों को शहीद कर दिया था। उनकी शव मुठभेड़ के काफी लंबे समय बाद बरामद किए गए थे।
साम्यभूमि फाउंडेशन ने सरकार और यूनिसेफ(Unicef) के सहयोग से इस दुर्गम क्षेत्र को स्वास्थ्य सुविधाओं से जोड़ने का अद्भुत काम किया है।
सुकमा को नक्सलयों का मज़बूत गढ़ माना जाता है। साम्यभूमि फाउंडेशन ने सरकार और यूनिसेफ के सहयोग से इस दुर्गम क्षेत्र को स्वास्थ्य सुविधाओं से जोड़ने का अद्भुत काम किया है। सुकमा से मिनपा गांव पहुंचना कितना कठिन है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जिला मुख्यालय से मिनपा की दूरी महज 70.6 किलोमीटर है। लेकिन खराब और कच्ची सड़क के कारण तीन घंटे की यात्रा के बाद हमारा काफिला मिनपा गांव से 11 किमी पहले कोंटा प्रखंड के चिंतागुफा बाज़ार पहुंच सका।
नक्सली बच्चों को उठा ले जाते हैं और उन्हें बंदूक चलाना सिखाते हैं
यहां कुछ समय पहले ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के भवन का निर्माण हुआ है। पहले यह केंद्र कंटेनरों में चलाया जाता था। नक्सलियों को पक्की इमारतों का निर्माण और बच्चों को पढ़ाना पसंद नहीं है। उन्होंने स्कूल, पुलों और पुलियों को डायनामाइट से ध्वस्त कर दिया है। वे इसे अपने अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि अगर बच्चे पढ़ लिख जाएंगे तो उन्हें एक नई चुनौती का सामना करना पड़ेगा। मौका मिलने पर, वह दस, बारह साल के बच्चों को उठा ले जाते हैं और उन्हें बंदूक चलाना सिखाते हैं। कई गांवों में आदिवासियों ने पांच छह साल के बच्चों को अपने दूर के रिश्तेदारों के पास भेज दिया है।
स्वास्थ्य केंद्र का बनाया जाना बड़ी पहल
ऊंगली पर वोटिंग की स्याही दिखाई देने पर हाथ काट लिए जाने के डर से 95 प्रतिशत लोगों ने पिछले 30 वर्ष से चुनाव में वोट नहीं डाला है। ऐसे में स्वास्थ्य केंद्र का बनाया जाना वहां के लोगों की बड़ी पहल है।
इसमें कोरोना महामारी और स्वास्थ्य कर्मियों मितानिन, आशा, एएनएम के प्रयास शामिल हैं। चितना गुफा के आगे कोई वाहन नहीं जा सकता, आगे जाने के लिए एंबुलेंस का सहारा लेना पड़ा। मिनपा गांव से एक मील पहले ही एम्बुलेंस ने साथ छोड़ दिया। क्योंकि आगे का रास्ता पैदल तय करना था और नदी भी पार करना थी। सुकमा से मिनपा तक सीआरपीएफ के दर्जन भर कैंपों पर रुकना पड़ा। जबकि वहां हमारे आने की पहले से सूचना थी। फिर भी सैनिकों ने वाहनों को चेक किया। एक जगह तो खोजी कुत्तों ने भी मुआयना किया। इस तरह डॉक्टर, स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता और साम्य भूमि फाउंडेशन के स्वयं सेवकों के साथ मिनपा गांव पहुंचने में सफल हुए।
वहां जाकर महसूस हुआ कि यहां काम करना जनून जैसा है जिसका सबूत साम्य भूमि फाउंडेशन के आदर्श कुमार स्वयं हैं। वह पिछले पांच-छह साल से सुकमा में काम कर रहे हैं। पेशे से इंजीनियर आदर्श कुमार का कहना है कि यहां काम करने का अपना आनंद है। मिनपा में धरोली भाषा बोली जाती है, जो तेलुगु और हल्बी से मिलकर बनी है। कुछ आदिवासी युवा जो बचपन में शहर चले गए थे, वे हिंदी बोलते और समझते हैं। आदर्श कुमार ने बताया कि कोंटा प्रखंड के अंतर्गत 150 गांव हैं. सरकार ने यूनिसेफ के तकनीकी सहयोग से 97 गांवों में उप-स्वास्थ्य केंद्रों के निर्माण को मंजूरी दी है। लेकिन केवल 85 गांवों में ही स्वास्थ्य केंद्र सक्रिय हैं, मिनपा उनमें से एक है। इससे छह गांवों को जोड़ा गया है। मिनपा उप-स्वास्थ्य केंद्र से 2,635 लोगों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जाएगी। इस अवसर पर कोंटा प्रखंड के सीएमओ डॉ. कपिल कश्यप भी उपस्थित थे, उन्होंने कहा कि कुपोषण, मलेरिया, त्वचा रोग, सांप के काटने और घर में प्रसव इस क्षेत्र में आम हैं। लेकिन सरकार के साथ यूनिसेफ के सहयोग से स्थिति में सुधार हुआ है। अब मंगलवार और शुक्रवार को नियमित टीकाकरण किया जा रहा है। संस्थागत प्रसव में वृद्धि हुई है। अगस्त में 12% और सितंबर में केवल 3% बच्चों का जन्म ही घर पर हुआ है।
इसी तरह कुपोषित बच्चों को एनआरसी (न्यूट्रीशन रिहैबिलिटेशन सेंटर) में भर्ती कराया जाता है। चितना गुफा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी डॉ मुकेश बख्शी जो नौ साल से क्षेत्र में काम कर रहे हैं ने कहा कि सुकमा में मलेरिया एपीआई 40 फीसदी से ऊपर था, जो अब 10 फीसदी के करीब है। इसे 2% से कम करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए हर उपकेंद्र पर टेस्टिंग की व्यवस्था की गई है। मलेरिया के रोगी को कुछ खिलाने के बाद दवा दी जाती है। उन्होंने कहा कि पहले एनआरसी में हमेशा पचास बच्चे रहते थे। इनमें कोरोना के बाद से गिरावट आई है। एक सप्ताह में कम से कम दो बच्चे भर्ती होते हैं। उन्हें 14 दिनों तक केंद्र में रखा जाता है।
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डॉ बख्शी का कहना है कि मिनपा गांव बारिश में टापू जैसा हो जाता है। उस समय यहां पहुंचना मुश्किल होता था। अब जबकि यह उपकेंद्र बन गया है तो लोगों को दवा के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि हर 20 घरों पर एक मितानिन होना चाहिए लेकिन अभी 100 घरों पर एक मितानिन है। एएनएम व उसके सहायक की भी कमी है। इस कमी को पूरा करने के लिए, स्थानीय लड़कों और लड़कियों को गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रशिक्षित करके काम पर रखा जाता है। जब वे निपुण हो जाते हैं, तो सरकार उन्हें अपने पैरोल पर ले लेती है। स्थानीय होने के कारण उन्हें गांव में रहने और काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती है और गांव के लोगों का भी पूरा सहयोग मिलता है। बाहर से, आई एएनएम और उसकी सहयोगी इन दुर्गम गांवों में लंबे समय तक काम नहीं कर पाती। वह जल्द ही किसी दूसरे स्थान पर ट्रांसफर करा लेती हैं। इससे स्वास्थ्य सेवाओं की निरंतरता टूटती है।
मिनपा गांव के एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ओयम लक्का से बात करने पर मालूम हुआ कि उन्हें बचपन में चेचक का टीका लगा था। वृद्ध महिला मार्डी बीमे ने कहा कि नक्सलियों से पहले वन अधिकारी कभी-कभी आते थे। वह लकड़ी काटने वालों की कुल्हाड़ी छीन लेते थे। कभी पटवारी तो कभी डॉक्टर चेचक का टीका लगाने या मलेरिया की दवा देने आता था।
पहले सरकार खेती के लिए जमीन और खाने के लिए चावल दिया करती थी। नक्सलियों के आने के बाद यह मिलना बंद हो गया। यूनिसेफ के परियोजना अधिकारी विशाल वासवानी, जिन्होंने नक्सल क्षेत्रों को चिकित्सा सुविधाओं से जोड़ने की योजना बनाई है, ने बताया कि कोविड के दौरान ग्रामीण बहुत सावधान रहे। उनका मानना था कि यह एक बाहर की बीमारी है इसलिए बाहर से आने वालों को गांव के बाहर ही रोक कर इससे बचा जा सकता है। उन्होंने बाहर से आने वालों के लिए कुछ झोपड़ियाँ बना दीं। जहां बाहर से आने वालों को 14 दिन रखा गया। संतुष्ट होने पर कि बाहरी व्यक्ति को कोई बीमारी नहीं है, गांव में प्रवेश की अनुमति दी गई। गाँव वालों के स्वभाव में दूरी बनाए रखना शामिल है। उन्होंने कहा कि जब ग्रामीणों को कोविड वैक्सीन के बारे में बताया गया तो 45 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग स्वयं टीकाकरण कराने के लिए आगे आए। इस वजह से यहां के 95 फीसदी लोगों को पहली डोज़ और 75 फीसदी को टीके की दोनों डोज़ दी जा चुकी हैं।
नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार ने लोन वराटू (घर वापसी) और पूना नर्कोम (नई सुबह) जैसी योजनाएं चलाई हैं। इसके तहत नया जीवन शुरू करने के लिए जमीन और कुछ नगदी दी जाती है। नक्सलियों के आत्मसमर्पण और मारे जाने की खबरें अक्सर स्थानीय अखबारों में दिखाई देती हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कई घंटे बिताने के बाद महसूस हुआ कि यूनिसेफ सरकार के सहयोग से स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए कार्य कर रहा है। यदि सरकार के साथ स्थानीय सहयोग हो तो देश के दुर्गम क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराई जा सकती है। मिनपा इसका उदाहरण है जहां आदिवासियों ने उप-स्वास्थ्य केंद्र के लिए खुद झोपड़ी बनाकर दी है।
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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