बिहार में तमाम जातीय समीकरण फिट करने के बाद भी बीजेपी और जेडीयू अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। लिहाजा अब उन्होंने बड़ी बेशर्मी के साथ सांप्रदायिक कार्ड खेलना शुरू कर दिया है।
बीते 15 सालों के सुशासन बाबू के राज में विकास के सवाल पर कुछ कहने के लिए ना तो नीतीश कुमार के पास कुछ है और ना ही सुशील मोदी के पास।
लिहाजा अब भी वो अपने चुनाव प्रचार और भाषणों में लालू-राबड़ी राज के कुशासन और भ्रष्टाचार की डफली बजा रहे हैं। जो बात 15 साल पुरानी हो पड़ चुकी है। बिहार के 243 सीटों पर वोट डालने वाले 7.2 करोड़ से ज्यादा वोटरों में से करीब 2 करोड़ युवा वोटर हैं, जो लालू-राबड़ी राज के कुशासन से आगे बढ़कर विकास के सवाल पर नीतीश कुमार की घेराबंदी कर रहे हैं।
सरकारी नौकरी, रोजगार और चौपट उद्योग धंधों के सवाल पर कहीं ये घेराबंदी एनडीए को महंगी ना पड़ जाए इसलिए अब बिहार में असली मुद्दों को भटका कर सांप्रदायिक मुद्दों को भुनाने की कोशिश बड़ी शिद्दत के साथ की जा रही है। ऐसा लग रहा है कि बिहार में पस्त नीतीश-बीजेपी अब सांप्रदायिकता के भरोसे ही चुनाव लड़ रहे हैं।
सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने की नौटंकी करने वाले रिटायर्ड डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय को टिकट नहीं देकर जेडीयू और बीजेपी ने ये जता दिया है कि वो इसे तव्वजो नहीं दे रहे हैं। क्योंकि बिहार में सुशांत के लिए न्याय मांगने वाले 3 फीसदी के आसपास हैं, जबकि कुल सवर्णों का हिस्सा करीब 15 फीसदी है।
चुनाव में निकला जिन्ना का जिन्न
टीआरपी के लिए बीते ढाई महीने से इस नौटंकी में लगा एक राष्ट्रवादी भड़ुआ चैनल भले ही अब भी रिया चक्रवर्ची और बॉलीवुड के कथित ड्रग कनेक्शन के पीछे हाथ धोकर पड़ा हो, लेकिन बीजेपी को अच्छी तरह पता है कि ये मुद्दा बिहार के जातीय समीकरण के हिसाब से उनकी झोली को वोटों से नहीं भर पाएगा। लिहाजा फिर से उन्होंने जिन्ना, पाकिस्तान, कश्मीर, श्रीकृष्ण जन्मभूमि, महाराष्ट्र में मंदिर खुलवाने, असम में मदरसों पर तालाबंदी, लव-जिहाद, हिंदूराष्ट्र, टुकड़े-टुकड़े गैंग और तनिष्क के विज्ञापन जैसे भावनात्मक मुद्दों को उछालना शुरू कर दिया है। इसके लिए गिरिराज सिंह, संबित पात्रा जैसे भड़काऊ बयान देने वाले और सफेद झूठ बोलने वाले नेताओं को आगे कर दिया गया है। ताकि जाति बंधन तोड़कर एनडीए के पक्ष में हिंदू वोटरों का ध्रुवीकरण मुमकिन हो सके।
हालांकि बिहार में इस वक्त महागठबंधन, जिसमें मुख्य तौर पर आरजेडी, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां शामिल हैं, जनता के हित के सवाल पर नीतीश सरकार को घेरने में जुटी हैं। नीतीश सरकार के 15 साल के शासन का हिसाब-किताब मांगकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है। जिसका जवाब देने में नीतीश कुमार को काफी दिक्कत हो रही है। खासकर सृजन घोटले और मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड, जिसमें 34 बच्चियों के यौन शोषण की बात सामने आई थी, जैसे मुद्दों पर सुशासन बाबू को जवाब देते नहीं बन रहा। नीतीश ने मुजफ्फरपुर बालिका गृह बलात्कार कांड के बाद विपक्ष के दबाव में इस्तीफा देने वाली पूर्व समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा को फिर चेरिया बरियारपुर से टिकट देकर विपक्ष के हाथों में हमले का एक पैना हथियार भी दे दिया है। जबकि सेक्स कांड की छींटे नीतीश कुमार के दामन तक पहुंचे थे।
दरअसल एनडीए की पहली कोशिश महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव को राहुल गांधी की तरह पप्पू साबित करने की रही। लेकिन जब तेजस्वी ने अपने चुनाव प्रचार में जमीनी मुद्दों पर नीतीश को घेरना जारी रखा तो नीतीश की हवा निकल गई। बीते चुनाव में नीतीश ने बिहार में शराबबंदी को खूब भुनाया था। लेकिन आज हालत ये है कि बिहार में खुलेआम शराब की होम डिलीवरी हो रही है। और कहते हैं कि कई थाना वाले तो शराब बेचकर अरबपति बन गए हैं, भले कि सरकार को राजस्व में हजारों करोड़ की सालाना चपत लग रही हो। महागठबंधन का 25 सूत्रीय चुनाव घोषणा पत्र भी एनडीए के गले की हड्डी बन गया है। जिसमें 10 लाख स्थायी नौकरियों का वादा, युवाओं को परीक्षा शुल्क से मुक्ति, मनरेगा में 200 दिनों का काम, कृषि ऋण की माफी और पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू करने की बात मोटे तौर पर कही गई है। जो नौकरी के लिए दर-दर की ठोंकरें खा रहे बिहार के युवाओं को आकर्षित कर रही है।
बिहार चुनाव में इस वक्त सबसे दिलचस्प किरदार है एलजेपी के अध्यक्ष चिराग पासवान। रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद आजकल रोज अलग-अलग टीवी चैनलों पर श्राद्धकर्म के कपड़े यानी उतरी पहने इंटरव्यू देते नजर आते हैं। हालांकि जबसे नीतीश कुमार के दबाव में बीजेपी ने उन्हें ‘वोटकटवा’ कहकर बीजेपी से अलग कर दिया है तबसे वो शहीदाना अंदाज में हैं। रोज टीवी चैनलों पर कह रहे हैं कि वो तो एनडीए के साथ हैं और बिहार में मोदीजी के हनुमान की भूमिका निभा रहे हैं। वो फिलहाल नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोलने की बेहतरीन नाटक-नौटंकी कर रहे हैं, लेकिन बिहार की जनता ने 2015 के विधानसभा चुनावों में भी एलजेपी को उसकी हैसियत बताई थी और इस बार भी चिराग का वही हश्र हो सकता है। और अगर समीकरण उल्टा पड़ा तो वो नीतीश-मोदी की लंका में आग लगाने वाले भी साबित हो सकते हैं। आपको याद दिला दें कि 2015 के विधानसभा चुनाव में बड़बोले एलजेपी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे कुल 4.8 फीसदी वोट मिले और 2 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था।
फिर भी न्यूज चैनलों पर आज सबसे ज्यादा चिराग पासवान ही नजर आ रहे हैं, आखिर क्यों? ये सवाल आज बिहार के चौक-चौराहों पर चर्चा का विषय बना हुआ है। एलजेपी दरअसल बिहार में बीजेपी की ‘बी टीम’ ही है। जिसका काम वोट बटोरना से ज्यादा वोट काटना है। इसीलिए एलजेपी 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतार रही हैं, जहां बीजेपी चुनाव लड़ रही है। लेकिन जहां जेडीयू मैदान में है वहीं एलजेपी अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है। जिससे महागठबंधन को वोटों का नुकसान हो सकता है। लिहाजा अगर एलजेपी 143 सीटों पर 2 से 3 हजार दलित वोट भी काटने में कामयाब हो जाती है तो नतीजों में बड़ा अंतर आ सकता है और इसका फायदा एनडीए को हो सकता है। लिहाजा सारे मोदी मीडिया और गोदी मीडिया में तत्काल हवा भरी गई है ताकि दिन रात चिराग पासवान को दिखाकर ये भ्रम पैदा किया जा सके कि वो मजबूत हैं और वोटरों को इसी के बहाने भरमाया जा सके। लेकिन यकीन मानिए, बिहार की जनता समझदार है और वो पिछले चुनाव की तरह एक बार फिर से एनडीए और एलजेपी दोनों को धूल चटाने को बेताब ही नजर आ रही है।
बीते 6 महीने में नीतीश की सबसे बड़ी नाकामी कोरोना काल में लोगों को मदद पहुंचाने में रही। उन्होंने बिहार के प्रवासी मजदूरों के साथ ना केवल बेअदबी की बल्कि उनके लौटने का भी कोई इंतजाम नहीं किया। और तो और सैकड़ों मील पैदल सफर कर लौटे लोगों के रहने, खाने-पीने और इलाज का भी कोई ठोस इंतजाम नहीं कर पाए। कोरोना काल में बिहार में स्वास्थ्य इंतजामों की लचर हालत और सरकारी अस्पतालों की बदहाली और बदइंतजामी खुलकर सामने आ गई। रही सही कसर बाढ़ के कहर ने पूरी कर दी, जब तीन महीने तक त्राहिमाम् कर रहे करोड़ों लोग दाने-दाने को मोहताज रहे।
दरअसल बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने और मोदीजी के 2015 के चुनाव में सवा लाख करोड़ के पैकेज का एलान भी छलावा ही साबित हुआ है। बिहार में उद्योग-धंधों का चौपट होना, बंद पड़ी मिलों का चालू ना होना और ऊपर से नीतीश बाबू का ये कहना कि ‘लैंडलॉक्ड स्टेट’ यानी समुद्री मार्ग से ना जुड़े होने की वजह से यहां उद्योग-धंधों का लगना मुमकिन ही नहीं है, यहां के उत्साही युवाओं के बीच घोर निराशावाद पैदा कर रहा है। उन्हें पता है कि घृणा की राजनीति फिलहाल थोड़े समय के लिए सकून तो पहुंचा सकती है लेकिन फिर अगले 5 साल तक सुशासन बाबू को कोसते ही जीना पड़ेगा। लिहाजा चुनाव प्रचार के बीच नीतीश के इस तरह के बयान आग में घी डालने का ही काम कर रहे हैं।
अब भले ही चुवाव से पहले दरभंगा में एम्स बनाने का एलान हुआ हो, हवाई उड़ान शुरू होने जा रहे हों, मोदीजी ने भांति-भांति के पैकेज का एलान किया हो, लेकिन जब बिहार के लोग ईवीएम का बटन दबाएंगे तो उन्हें 2015 में आरा की जनसभा में मोदीजी का नाटकीय तरीके से 1.25 लाख करोड़ के पैकेज देने का एलान याद रहेगा। उन्हें कोरोना काल में प्रवासियों के साथ की गई बेअबदी, बाढ़ में लोगों की परेशानी, सरकारी नौकरियों का अकाल, चौपट शिक्षा व्यवस्था, सब के सब याद रहेगा। उन्हें याद रहेगा कि किस तरह उन्हें ये कहकर बहकाने की कोशिश की गई कि अगर आरजेडी की सरकार बनेगी तो बिहार में आतंकी आ जाएंगे। बीते एक महीने से किस तरह गोदी मीडिया के सहयोग से लोगों को बरगलाने, समाज के तानेबाने को तोड़ने और बिहार की फिजां बिगाड़ने की कोशिश हो रही है, माहौल में सांप्रदायिकता का जहर घोलकर वोटों की फसल काटने की कवायद चल रही है, ये सब याद रहेगा।
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