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विपक्षी एकता: जरूरी या मजबूरी? - globaltoday

विपक्षी एकता: जरूरी या मजबूरी?

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कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से विपक्षी पार्टियां खुश हैं। हालांकि इस से पहले कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की बात हो रही थी। जिसमें केसीआर और ममता बनर्जी प्रमुख थे। वह अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, फारूक अब्दुल्ला, शरद पवार आदि के साथ तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश में लगे थे। अखिलेश यादव बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी बनाने की बात कर रहे थे। वह भारत जोड़ो यात्रा में भी शामिल नहीं हुए। वहीं, आम आदमी पार्टी के दो मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं। इस की आंच केजरीवाल तक भी आ सकती है।  केसीआर की बेटी और ममता के भतीजे से पूछताछ हो चुकी है। टीएमसी के कई मंत्री भी जेल में हैं। भूपेश बघेल समेत कई अन्य विपक्षी नेता ईडी के राडार पर हैं। ऐसे समय में कर्नाटक की जीत ने न केवल विपक्ष के हौसले को बढ़ाया है बल्कि यह भी तय कर दिया है कि बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता की बात न तो प्रभावी हो सकती है और न ही कारगर। इस लिए कांग्रेस के प्रति ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और केजरीवाल के तेवर नरम पड़ गए हैं।

कांग्रेस ने समान विचारधारा और ऐसे दलों को साधने का जिम्मेदारी नीतीश कुमार के कंधों पर डाली है। जिनसे उसका सीधा मुकाबला हो सकता है। नीतीश कुमार ने उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक देश का दौरा कर सभी विपक्षी नेताओं को गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए तैयार किया है। वे विपक्षी खेमे की आपसी लड़ाई को दोस्ताना लड़ाई में बदलना चाहते हैं। बीजेपी विरोधी पार्टियों की जो बैठक12 जून को होने वाली थी वह अब 23 जून को पटना में होगी। इसमें मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी सहित अधिकांश शीर्ष विपक्षी नेता शामिल होने के लिए सहमत हो गए हैं।  बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ​​ललन सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसकी जानकारी दी है। इसमें ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, एमके स्टालिन, अरविंद केजरीवाल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी. राजा, मार्कसवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीता राम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के दीपांकर भट्टाचार्य ने बैठक में भाग लेने का संकेत दिया है। उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव का नाम नहीं लिया।

भाजपा को हराने का प्लान 475

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की काट तलाश कर रहे नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा को हराने का प्लान 475 बनाया है। उनका कहना है कि बैठक में एक एक सीट पर रणनीतिक लड़ाई का रोड मैप सबके सामने होना चाहिए। ममता बनर्जी का कहना है कि 543 लोकसभा सीटों में से कम से कम 475 पर विपक्ष का केवल एक उम्मीदवार चुनाव लड़े। वह चाहे कांग्रेस का हो या किसी अन्य पार्टी का। इससे भाजपा विरोधी वोटों को बंटने से बचाया जा सकता है। उनका मानना ​​है कि कांग्रेस को केवल 200 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए और बाकी सीटों पर क्षेत्रीय पार्टियों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो जहां मजबूत हो। अखिलेश भी ममता के सुर में सुर मिला रहे हैं क्योंकि दोनों राज्यों में कांग्रेस की हालत एक जैसी है। बैठक में 475 सीटों के जिस फॉर्मूले पर बात होगी वह 2019 के चुनाव पर आधारित होगा। जिस पार्टी ने जो सीट जीती वह उसकी, दूसरे स्थान पर रहने वाली पार्टी को प्राथमिकता दी जाए। क्षेत्रीय पार्टियां इस फॉर्मूले पर कांग्रेस को मनाने की कोशिश करेंगी। अगर कांग्रेस इस पर राजी हो जाती है तो उसे 2024 में लड़ने के लिए 250 सीटें मिल जाएंगी। ऐसे में यदि विपक्षी गठबंधन की जीत होती है तो सरकार की बागडोर गठबंधन के सहयोगियों के हाथ में रहेगी।  लेकिन सीधी लड़ाई में बीजेपी कांग्रेस पर हावी रहती है।

पिछले संसदीय चुनाव पर नजर डालें तो 190 सीटों पर आमने-सामने की लड़ाई में भाजपा ने 175 और कांग्रेस ने 15 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस 209 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी। रनरअप सीटों को मिला दें तो कांग्रेस 261 पर जीती या आगे रही।  71 सीटों पर उसका मुकाबला क्षेत्रीय दलों से था। इनमें से उसने 37 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को छोड कर विपक्षी पार्टियों का 185 सीटों पर भाजपा से सीधा मुकाबला था। इन में भाजपा को 128 और विपक्ष को 57 सीटें मिली थी। आंकड़े बताते हैं कि विपक्षी गठबंधन इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस कितना झुकती है। यदि क्षेत्रीय दल कांग्रेस को यह विश्वास दिला दें कि पहले अधिक से अधिक सीटें जीती जाएं और सबसे बड़ी पार्टी की अगवाई में सरकार बनेगी, तो शायद बात बन जाए।

कई राज्यों में क्षेत्रीय दल कांग्रेस और भाजपा से लड़ती हुई दिखाई देती हैं। मसलन, केरल में लेफ्ट और कांग्रेस आमने-सामने होंगे। पश्चिम बंगाल में टीएमसी का मुकाबला लेफ्ट, कांग्रेस और बीजेपी से है।  आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस का मुकाबला भाजपा और कांग्रेस से होगा।

  तेलंगाना में बीआरएस को भाजपा और कांग्रेस से मुक़ाबला करना है। ओडिशा में बीजू जनता दल का उभरती हुई भाजपा और कांग्रेस से मुकाबला है। पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस आमने-सामने होंगी। जबकि दिल्ली में उसे खतरा है, इसलिए वह कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ सकती हैं। त्रिपुरा में कांग्रेस और लेफ्ट को टिपरा मोथा के साथ गठबंधन करना होगा। असम में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के लिए कई समस्याओं का समाधान निकालना है। वहां भाजपा के मुख्यमंत्री तेज तर्रार नेता हैं। जो स्थानीय पार्टियों से तालमेल बिठाने में माहिर हैं। ऐसे में नीतीश कुमार और ममता का एक सीट एक उम्मीदवार का फार्मूला चुनाव के नतीजों को बदल सकता है।

हिंदी पट्टी में भाजपा 2019 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। लेकिन अब स्थिति बदली हुई है। अनुमान है कि यूपी को छोड़कर भाजपा को बड़ी संख्या में सीटों का नुकसान होगा। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 65 सीटें हैं। इनमें से भाजपा को 61 और कांग्रेस को तीन सीटें मिली थीं। इस बार कांग्रेस 30 से ज्यादा सीटें ले सकती है।  इसी तरह कर्नाटक की 28 सीटों में से भाजपा को 10 सीटें जीतना भी मुश्किल होगा। यदि कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन किया तो भाजपा पांच सीटें भी नही जीत पाएगी। कांग्रेस के योजनाकार सुनील कानून गोलू के तहत यदि उचित रणनीति अपनाई गई तो कांग्रेस की सीटें 70 से 80 तक बढ़ सकती हैं। 2024 के चुनावों के बाद, कांग्रेस की सीटों की संख्या 122 से 132 के बीच हो जाएगी, जो लोकसभा की 543 सीटों में से भाजपा को 170 सीटों से नीचे लाने के लिए पर्याप्त हैं। इस स्तिथी में 2024 लोकसभा चुनाव के बाद वाईएसआर कांग्रेस और बीजद विपक्षी गठबंधन के साथ सहयोग करने में रुचि लेंगे। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 145 सीटें मिली थीं और 2009 के चुनाव में यह संख्या बढ़कर 206 हो गई। विपक्ष की आगामी बैठक में इन मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए।

देश के एहम मुद्दे

इस समय पहलवानों खासकर बेटियों के मुद्दे ने समाज को झकझोर कर रख दिया है। ऊपर से एमएसपी की मांग कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज, गिरफ्तारी और मुकदमें लगाने का दिल्ली, पश्चिमी यूपी, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब की सीटों पर प्रभाव पड़ेगा।  कर्नाटक के चुनाव परिणाम बताते हैं कि बेरोजगारी, गरीबी के साथ-साथ भ्रष्टाचार के मुद्दों ने भी मतदाताओं की राय बदल दी है।  इन मुद्दों पर आधारित एक राष्ट्रीय अभियान संयुक्त विपक्ष द्वारा शुरू किया जाना चाहिए। आने वाले दिनों में यह कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का अहम हिस्सा बन सकता है।

अब राजनीतिक स्थिति गैर-भाजपा विपक्ष के हित में है। लोकसभा चुनाव से पहले अगला एक वर्ष कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के खिलाफ अन्य विपक्षी दलों के लिए भी महत्वपूर्ण है। जिसमें इस वर्ष और अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव भी शामिल हैं। 23 जून को होने वाली विपक्ष की बैठक में इस पर भी चर्चा होनी चाहिए। देश में एक ओर जहां माहौल बदलाव के लिए अनुकूल है। वहीं दूसरी ओर, भाजपा विपक्ष मुक्त भारत के एजेंडे पर काम कर रही है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि विपक्षी पार्टियां अपने मतभेद भुलाकर बीजेपी का सामना करने के लिए एकजुट हों। अब विपक्ष जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतरेगा या भ्रमित होकर तीसरी बार भाजपा की जीत का मार्ग प्रशस्त करेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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