रमज़ाननुल मुबारक अपनी रहमतों व बरकतों के साथ सायाफगन होने वाला है.

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रमजानुल मुबारक वह महीना है जिसमें कुरान नाज़िल हुआ. जो सम्पूर्ण मानवता के लिए राहे हिदायत है.यह वह महीना है जिसमें एक नेकी का बदला सत्तर गुना तक बढ़ जाता है.

इसके आखिरी अशरे की एक रात लैयलतुल क़द्र सत्तर हज़ार रातों से अफ़ज़ल बतायी गई है. इसीलिये इसे हिजरी कैलेंडर के महीनों का सरदार कहा जाता है.

यह मोमिनीन के लिए नेकियाँ कमाने का बेहतरीन मौसम है. इसका पहला अशरा यानि पहले दस दिन रहमत दूसरा मग़फिरत तीसरा जहन्नम से निजात माना गया है. यह अल्लाह ताअला कि रहमते करीमी नहीं तो और क्या है कि वह अपने बन्दों को ग्यारह महीनें ग़फ़लत और कोताही में गुज़ारने के बाद एक महीना अपने गुनाहों से तौबा करने के लिए अता करता है. हदीस में आता है कि सच्चे दिल से तौबा करने वाले के पिछले तमाम गुनाह माफ़ हो जाते हैं.

रोज़ा अरबी भाषा के शब्द सौम से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है रुकना सुबह सादिक़ से शाम को सूरज डूबने तक न सिर्फ खाने पीने बल्कि तमाम बुराइयों से रुके रहने का नाम रोज़ा है.

रसूल अल्लाह स० ने फ़रमाया “जिसने रोज़ा रखकर भी ग़लत कामों को नहीं छोड़ा अल्लाह ताअला को उसका खाना और पानी छुड़ाने की कोई ज़रूरत नहीं”. हदीस में यह भी कहा गया है कि कुछ रोज़ेदारों को रोजे़ से सिवाय भूख व प्यास के कुछ नहीं मिलता. रोजे़ की हालत में अल्लाह और बन्दे का ताल्लुक़ मज़बूत हो जाता है क्योंकि बन्दे को हर वक़्त यह एहसास रहता कि उसका रब उसे देख रहा है जिसकी वजह से वह खाने पीने के साथ दूसरी बुराइयों से भी बचने की कोशिश करता है जिससे उसके अन्दर तक़्वा पैदा होता है रोजे़ का अस्ल मक़सद भी यही है.

कुरआन में अल्लाह ताअला फरमाता है कि “ऐ लोगों रोज़ा तुम पर फर्ज़ किया गया है जैसा कि तुमसे पहली उम्मतों पर फर्ज़ किया गया था ताकि तुम मुत्तक़ी बन जाओ”.

इससे मालूम होता है कि रोज़ा एक एहम इबादत है जो हर उम्मत पर फर्ज़ की गई है. इस माह में नमाज़ तरावीह के ज़रिए कुरान से जुड़ने का मौक़ा मिलता है कुरान पढ़ने, सुनने के साथ उसे समझने का भी एहतमाम करना ज़रूरी है ताकि उसकी तालिमात पर अमल किया जा सके.

रमज़ानुल मुबारक का महीना आम इंसान को नेकियों पर उभारता है समाज के ग़रीब तबके़ को भी इस महीने का बडा़ इन्तजार रहता है. सदका, खैरात व फितरे की रक़म से जहाँ गरीबों की ज़रूरियात पूरी होती हैं वहीं अमीरों में माल की मुहब्बत कम करने की हिकमत छुपी है.
इस्लाम के पांचवे और एहम सतून (स्तंभ) ज़कात की अदायगी भी ज़्यादा तर लोग इसी महीने में करके अपने माल को पाक करने की कोशिश करते हैं. यह रक़म गरीबों की मदद से लेकर सामाजिक कल्याणव उत्थान के कामों में खर्च की जाती है.
लेखिका: नय्यर हसीन,स्वामी विहार,हल्द्वानी, नैनीताल

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