कई पीढ़ियों ने साहिर लुधियानवी की नज्मों ओर गीतों के हवाले से इश्क के संस्कार सीखे हैं लेकिन खुद साहिर इश्क के मामले में बहुत बदकिस्मत रहे। कभी धर्म, कभी अपनी झिझक और कभी किस्मत इन सबने कभी साहिर का घर नहीं बसने दिया। साहिर की बात यूं हो रही है कि 8 मार्च को साहिर का सौंवा जन्म दिवस है।
एक सदी पहले यानी 1921 में लुधियाना में जन्मे साहिर का असली नाम अब्दुल हई था। शायरी के लिये नाम साहिर रख लिया और फिर अब्दुल हई तो खो गया जबकी साहिर आज भी चर्चा में है। साहिर जब गवर्मेंट कालेज लुधियाना में पढ़ रहे थे तभी उनकी शायरी चर्चित होने लगी। साहिर कालेज के हीरो बन चुके थे और उनके साथ पढ़ने वाली महिंदर चौधरी नाम की लड़की ने इस हीरो को दिल दे दिया। प्यार के पहले एहसास को अभी साहिर ने जी भर के जीना शुरू ही किया था कि महिंदर की तपेदिक की वजह से मौत हो गयी।
यह पहला जख्म था जिसके निशान बरसों बाद तक साहिर की शायरी में झलकते रहे। महिंदर की मौत के बाद साहिर की लोकप्रियता से प्रभावित हो कर कालेज में ही पढ़ने वाली एक और लड़की ईशार कौर से साहिर की दोस्ती हुई। लेकिन दोनो के धर्म अलग थे, जो आज भी महत्वपूर्ण सामाजिक मसला है और उन दिनो भी था। घर वालों के दबाव में ईशार ने कालेज की पढ़ाई छोड़ दी और साहिर से हमेशा के लिये जुदा हो गयी। 1943 में साहिर की शायरी का पहला संग्रह ‘तलखियां’ प्रकाशित हुआ। अब साहिर की शोहरत तेजी से फैलने लगी। 1944 में एक मुशायरे में पंजाबी कवित्री और लेखिका अमृता प्रीतम ने पहली बार साहिर के साथ मंच साझा किया। मुशायरा तो देर रात खत्म हो गया लेकिन अमृता के मन में साहिर के प्यार की लौ ऐसी जली कि अमृता सारी उम्र साहिर को प्यार करती रहीं।
इस बार साहिर घर बसाने की बात पर झिझकते रहे जबकी अमृता उनका इंतजार करती रह गयीं। अपने इश्क के इन उतार चढ़ाव को साहिर ने बाद में फिल्मी गीतों के रूप में ढाल दिया। “ मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी – मुझको रातों की स्याही के सिवा कुछ ना मिला” (चंद्रकांता), किसका रस्ता देखे ऐ दिल ऐ सौदाई (जोशीला), तुम ना जाने किस जहां में खो गए – हम भरी दुनिया में तन्हा हो गये (सजा), तेरा खयाल दिल से मिटाया नहीं अभी (दोराहा – 1951), इश्क की गर्मी ए जज्बात किसे पेश करूं (गजल) जैसे कई गीत मानो साहिर की जीवनकथा के अंश हैं।
साहिर का दिल एक बार फिर धड़का पचास के दश्क में। कमसिन गायिका सुधा मल्होत्रा की आवाज और साहिर के गीतों ने धूम मचा दी। फिल्म दीदी का ये गीत “तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको – मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है” तो करीब साठ साल बाद भी सुधा मल्होत्रा की पहचान बना हुआ है। फिल्मी अखबार और पत्रिकाएं साहिर और सुधा के रिश्तों पर टिप्पणियां करने लगे। साहिर जैसे नामी शायर अगर किसी गायिका पर खास ध्यान देने लगे तो चर्चाएं होना स्वाभाविक थीं। हालाँकि बताया ये भी जाता है कि उन दिनो साहिर की लता मंगेशकर से अनबन हो गयी थी। लता ने साहिर के लिखे गीत गाने बंद कर दिये थे। ऐसे में साहिर ने सुधा मल्होत्रा को मौके दिलाने शुरू किये।
सुधा मल्होत्रा बताती हैं कि साहिर साहब और मेरे रिश्तों को लेकर उस दौर में मीडिया बेसिर पैर की बातें छाप रहा था। मैंने अपने कई शुरूआती गीत साहिर साहब के लिखे हुए गाए। शायद उन्हें मेरी आवाज पसंद थी और फिर उन जैसी दिग्गज हस्ती अगर किसी पर खास ध्यान रखे तो भला कौन उसे इंज्वाय नहीं करेगा, लेकिन प्रेम जैसी कोई बात नहीं थी।
बहरहाल सच्चाई चाहे जो हो लेकिन ये तो सबने देखा कि जब सुधा मल्होत्रा अपने उरूज पर थीं तो महज 21 साल की उम्र में उन्हें अपने कैरियर को अलविदा कहना पड़ा और परिवार वालों की मर्जी से शादी करनी पड़ी। साहिर ये सब देखन के सिवा कुछ नहीं कर सकते थे और उन्होंने वही किया।
साहिर के वैचारिक झंडे का रंग लाल था। फैज़ और जोश से प्रभावित होकर उन्होंने प्रेम की चाशनी में डूबी जैसी क्रांतिकारी शायरी की, वैसी और कोई दूसरा नहीं कर सका।
परछाईयां, ताजमहल, आओ की कोई ख्वाब बुनें, खूबसूरत मोड़, किसी को उदास देख कर, मता ए गैर, रद्द ए अमल जैसी अनेक नज्में हैं जिनमें साहिर ने बिल्कुल नए अंदाज में मोहब्बत, जुदाई, दर्द और बेबसी को अभिव्यक्ति दी है।
फिल्मों में भी उन्होंने सामाजिक बदलाव, हास्य और क्रांतिकारी भाव के बेहद सफल गीत लिखे। लेकिन मूलत: वे रोमांटिक शायर थे। प्यार में हर बार मिली नाकामी की वजह से ही साहिर को कहना पड़ा कि वे शादी नाम की संस्था के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वे खुद शादी की जरूरत नहीं महसूस करते। बहरहाल जिंदगी भर इश्क की शायरी करने वाला ये बेमिसाल शायर 25 अक्टूबर 1980 को अपनी जिंदगी की तन्हाई से घबरा कर हमेशा के लिये हम से दूर चला गया।