(राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में मुसलमानों के रद्देअमल ने यह साबित कर दिया है कि अब सब्र और बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई है)
टकराना किसी भी हाल में फ़ायदेमन्द नहीं होता। चाहे आप किसी दीवार से टकराएँ या पहाड़ से या फिर किसी इंसान से। पहली दो सूरतों में तो आप का ही सर फूटेगा। अलबत्ता आख़िरी सूरत में सामने वाले का सर फूट सकता है। लेकिन आपको भी कुछ न कुछ तकलीफ़ ज़रूर होगी। इसलिये समझदार लोगों के नज़दीक टकराने की हर सूरत और झगड़े को टाल देना ही अक़लमन्दी है। मगर झगड़ा अगर ख़ुद ही सर पर आन पड़े तो फिर टक्कर देने में ही फ़ायदा है।
मुल्क के हालात कुछ इस रुख़ पर जा रहे हैं कि एक पक्ष चाहता है कि दूसरा पक्ष उससे टकराए और लड़े। इसीलिये वो हर दिन नया शिगूफ़ा छोड़ देता है। कभी मस्जिद की अज़ानें, कभी हिजाब, कभी हलाल गोश्त, कभी तलाक़ और हलाला और न जाने कितने ही ऐसे इशूज़ जिनका ताल्लुक न मुल्क की तरक़्क़ी से है न उनके अपने दीन-धर्म से। लेकिन वो इन इशूज़ को उठाते रहते हैं। पिछले आठ साल से ये सिलसिला जारी है। कोरोना जैसी महामारी में भी यह नंगा नाच जारी रहा।
अब ताज़ा मामला राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात का है। जहाँ राम-नवमी के जुलूस में अपमानजनक और भड़काऊ नारेबाज़ी के ज़रिए दूसरे पक्ष को उकसाया गया जिसमें शायद कुछ कामयाबी मिल गई और जवाबी तौर पर दूसरी तरफ़ से पथराव कर दिया गया। भड़काऊ नारेबाज़ी का इतिहास भी बहुत पुराना है। सिर्फ़ चेहरे और ज़बानें बदलती हैं मगर नारों की रूह वही रहती है।
मुसलमान आज़ादी के बाद से ही सताए जाते रहे हैं। दंगे भी हमेशा ही होते रहे हैं। जिनमें ज़्यादातर नुक़सान भी मुसलमानों का ही हुआ और आज तक हो रहा है। मगर ‘मरता क्या न करता’ की मिसाल के मुताबिक़ मुसलमानों ने मजबूरन ही इस लड़ाई में हिस्सा लिया। किसी भी मौक़े पर और किसी भी मक़ाम पर किसी मुसलमान ने लड़ाई की शुरुआत कभी नहीं की। इसलिये कि मुसलमान जानते हैं कि लड़ाई में ज़्यादा नुक़सान अपना ही होना है। इसलिये कि तादाद का भी बड़ा फ़र्क़ है। हुकूमत की तटस्थता और ग़ैर-जानिबदारी भी शक के घेरे में है।
मेरा ख़याल है कि मुसलमानों ने लड़ाई-झगड़े को टाल के अच्छा ही किया। आगे भी उन्हें यही रवैया अपनाना चाहिये। जहाँ तक मुमकिन हो बर्दाश्त करना चाहिये। जिस हद तक भी हो झगड़े को टालना चाहिये। इसी में उनकी जीत है। मुझे सब से ज़्यादा ताज्जुब अपनी उन तंज़ीमों और जमाअतों पर होता है जो मुसलमानों के मसाइल हल करने के मक़सद से वुजूद में आई थीं, वो पिछले आठ साल में कहाँ खो गई हैं? मुशाइरे और अदबी महफ़िलें सजाने वाली तंज़ीमों की ख़बरें तो अक्सर अख़बारों की ज़ीनत बनती रहीं मगर मुसलमानों की समाजी और मज़हबी तंज़ीमों की सरगर्मियों की जानकारी सामने नहीं आ रही है।
मुसलमानों के सामने जो मसाइल हैं और भारतीय मुसलमान जिन तकलीफ़ देनेवाले हालात से गुज़र रहे हैं उनके हल के लिये वो क्या कर रही हैं? ये जानकारी लोगों को होनी चाहिये।
पिछले साल 8 अगस्त को दिल्ली में मुसलमानों की तंज़ीमों की दो दिन की बैठक हुई थी। उसको भी 9 महीने हो चुके हैं। लेकिन कोई ख़ुशख़बरी सामने नहीं आई। अलबत्ता मिल्ली जमाअतों की रिफ़ाही और फ़लाही सरगर्मियों की ख़बरें अख़बारात के ज़रिए पहुँचती रहती हैं। कहीं राशन दिया जा रहा है, कहीं सर्दी के मौसम में लिहाफ़ बाँटे जा रहे हैं, कहीं ख़त्मे-क़ुरआन की महफ़िल है, कहीं पीरो-मुरशिद का उर्स लगाया जा रहा है, कहीं तरबियती जलसे हो रहे हैं। कोई तंज़ीम तंज़ीमी जायज़े और समीक्षा की बैठक बुला रही है। किसी तंज़ीम ने कुछ नई पुस्तकें प्रकाशित की हैं। मदरसों में ख़त्मे बुख़ारी की महफ़िल सजाई जा रही है।
ये सारे काम अल-हम्दुलिल्लाह जारी हैं। सवाल यह है कह हुकूमत की सरपरस्ती में दंगाइयों की तरफ़ से मुसलमानों को ज़ेहनी, जिस्मानी, जानी और माली जो नुक़सानात पहुँचाए जा रहे हैं उनपर कौन बात करेगा?
मेरी राय है कि हुकूमत से डायलॉग की ज़िम्मेदारी हमारी मिल्ली तंज़ीमों और जमाअतों की ही है। सरकार किसी की भी हो। भारतीय संविधान के मुताबिक़ वो सबकी सरकार है। इससे पूरी तरह परहेज़ करना और ज़्यादा नुक़सान करना है। किसी शरपसंद आदमी से बातचीत का दरवाज़ा बंद करके परेशानियों को नहीं रोका जा सकता। इसलिये कि डिजिटल इंडिया में परेशानियों को आने के लिये दरवाज़ों की ज़रूरत नहीं है। बल्कि इससे बात करके ही किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है। मुसलमानों को ये नहीं कहा गया कि वो अपने विरोधियों से बातचीत ही न करें। बल्कि विरोधियों से डायलॉग करने की शिक्षा दी गई।
सुलह-हुदैबिया इसकी बेहतरीन मिसाल है। ये सुलह इसलिये नहीं की गई थी कि मुसलमान कमज़ोर थे या जंग से घबराते थे। बल्कि उस वक़्त मुसलमान जिस क़द्र तैयारी से आए थे उनके लिये जीत यक़ीनी थी। इसके बावजूद मक्का की उस वक़्त की मौजूदा हुकूमत से बात करने के नतीजे में टकराने की बजाय सुलह का रास्ता इख़्तियार किया गया। जिसके नतीजे बेहतरीन निकले। क्या आज की हुकूमत से बात-चीत करके आपस में मिलजुलकर रहने की कोई तरकीब नहीं निकाली जा सकती? क्या इस देश के शहरी होने के नाते ये हमारी ज़िम्मेदारी नहीं कि मौजूदा हालत को बदलने में भूमिका निभाएं? क्या मुसलमान होने की हैसियत से हमारा फ़रीज़ा नहीं कि दूसरे पक्ष से मिल करके समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करें?
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जिसने अपनी हालिया कार्यसमिति की बैठक में हिजाब के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज करने का फ़ैसला किया है। जिसकी मैं ताईद करता हूँ। क्या वह सरकार से बात करने और मुल्क और मिल्लत के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए बुद्धिजीवियों की एक कमेटी नहीं बना सकते? आख़िर इसमें क्या रुकावट है? या सभी मुलिम संगठनों ने यहाँ के मुसलमानों को सरकार के रहमो-करम पर छोड़ रखा है? मेरी राय है कि अगर आज भी सुलह हुदैबिया हो और सुलह की मांगे पूरी की जाएँ तो आने वाले सालों में बेहतरीन नतीजे देखने को मिलेंगे।
मेरे मोहसिनो! अभी देश में संविधान मौजूद है। अभी सरकार ने अपने दरवाज़े बंद नहीं किये हैं। अभी लोगों के दिल और कानों पर मोहर नहीं लगी है। अभी रास्ते खुले हैं। मेरी राय है कि मुस्लिम मजलिस मशवरात, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम राजनितिक दलों को बुद्धिजीवियों की एक कमेटी बनानी चाहिए। जिसका काम सिर्फ़ सरकार और मुस्लिम विरोधी संगठनों से डायलॉग करना हो। बात होगी तो रास्ते खुलेंगे। वरना देश जिस तबाही की तरफ़ तेज़ी से जा रहा है उस तबाही का शिकार तो हम होंगे ही, उसके ज़िम्मेदार भी हम ही होंगे। क्योंकि इस ज़मीन पर ख़ुदा के आख़री पैग़ाम के अमीन भी हम ही हैं। ख़ैरे-उम्मत होने के नाते दुनिया को तबाही से बचाने की ज़िम्मेदारी अभी हम पर ही है।
ये भी हो सकता है कि बातचीत से मसाइल हल न हों। लेकिन अपनी बात रख देने से देश के लोगों के सामने सरकार की हठधर्मी वाला रवैया खुल जाएगा और फिर किसान आंदोलन की तरह मुसलमानों को भी आंदोलन के लोकतांत्रिक अधिकार को इस्तेमाल करने का रास्ता खुल जाएगा।
राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में मुसलमानों के रद्दे-अमल ने ये साफ़ कर दिया है कि अब सब्र और बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई है। अमल और रद्दे-अमल का ये सिलसिला अगर इस तरह जारी हो गया तो सारा देश ख़ाक हो जाएगा। मेरी इन्साफ़पसन्द शहरियों से भी अपील है कि हुकूमत की शरारतों को समझें और उन मुद्दों से ख़ुद को अलग रखें जिनसे उनका सीधा कोई ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि अपनी हुकूमत पर दबाव डालें कि वो बिना किसी वजह के लोकतांत्रिक ढाँचे को तबाह न करे।
मुसलमान लड़की अपना सर ढांके या खोले, उससे देश की अर्थव्यवस्था पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, किसी के रोज़गार पर असर नहीं पड़ता, मुसलमान हलाल गोश्त खाएँ या न खाएँ इससे देश की शान में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अलबत्ता लड़ाई-झगड़े और फ़सादात से यहाँ की हज़ारों साल पुरानी गँगा-जमनी तहज़ीब और भाईचारे पर फ़र्क़ पड़ता है और देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होती है। देश के लोगों का असल मसला अज़ान, नमाज़ और पूजा नहीं बल्कि बे-रोज़गारी और महँगाई है। हुकूमत के साथ डायलॉग भी हों, देश के लोगों के सामने देश की सही सुरते-हाल भी पेश की जाए और इन्साफ़ पसंद लोगों को झंझोड़ा भी जाए तो टकराने की नौबत नहीं आएगी।
हमने माना कि वो न मानेंगे।
बात करने में क्या बुराई है॥
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)