आज मुझे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ याद आ गए और यकीन हो गया कि किस तरह मसनद पर बैठा शख्स जब खुद को हाकिम और जनता को महकूम समझने की भूल कर बैठता है तो देर सवेर एक दिन ऐसा आता है जब महकूमों के पाँव-तले की धरती धड़-धड़ धड़कने लगती है। ज़ुल्म-व-सितम के कोह-ए-गिराँ पल भर में रूई की तरह उड़ने लगते हैं और अहल-ए-हकम के सर के ऊपर बिजली कड़-कड़ कड़कने लगती है। फिर देखते ही देखते सब ताज उछाल दिए जाते हैं, सब तख्त गिरा दिए जाते हैं और खुद को खुदा समझने वाले हाकिम को मुल्क छोड़ कर भागने पर मजबूर होना पड़ जाता है।
बांग्लादेश में भी ऐसा ही कुछ हुआ है। वहां की राजनीतिक उथल-पुथल के बीच प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे, फरार और अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा ने देश को एक नई दिशा में धकेल दिया है। शेख हसीना, जो बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं, 2009 से प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता पर काबिज़ थीं। हाल ही में हुए 12वें विवादित आम चुनाव में उन्होंने लगातार चौथी बार और कुल पांचवीं बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। लेकिन विवादास्पद आरक्षण प्रणाली और सरकार के खिलाफ बढ़ते विरोध प्रदर्शनों ने उनको इस्तीफा देने और देश से भागने पर मजबूर कर दिया।
विरोध प्रदर्शन और उनके कारण
प्रदर्शनकारी, मुख्य रूप से छात्र, आरक्षण प्रणाली को समाप्त करने की मांग कर रहे थे, जिसके तहत 1971 के स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने वालों के परिजनों के लिए सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था। इन आरक्षणों का मकसद सरकार के उच्य पदों पर अपने रिश्तेदारों और हिमायतियों को बिठाकर बांग्लादेश की सत्ता पर हमेशा हमेशा के लिए काबिज़ रहना था। इस प्रणाली ने देश में व्यापक असंतोष को जन्म दिया और सरकार विरोधी आंदोलन का रूप ले लिया। छात्रों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा की, जिसमें उन्होंने नागरिकों से टैक्स और बिल न जमा करने की अपील की। उन्होंने कारखानों और सार्वजनिक परिवहन को बंद करने का आह्वान किया और शेख हसीना के खिलाफ हत्या, लूट और भ्रष्टाचार के मुकदमे चलाने की मांग की। शेख हसीना पर चुनाव में धांधली करने और विरोधियों को फांसी पर लटकाए जाने तक का आरोप है।
शेख हसीना का इस्तीफा और अंतरिम सरकार
बढ़ते विरोध प्रदर्शनों और हिंसा के बीच, जिसमें 20 हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया और 300 से अधिक लोगों की जान गई, शेख हसीना ने इस्तीफा दे दिया और सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमां ने अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा की। उन्होंने जनता से सहयोग की अपील की और कहा कि वे देश की सारी जिम्मेदारी लेंगे। शेख हसीना के भारत होते हुए लंदन रवाना होने की खबरों के बीच, राजधानी ढाका में उनके सरकारी आवास और पार्टी कार्यालय पर हमले हुए। प्रदर्शनकारियों ने हसीना के पिता और बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को भी तोड़ दिया और प्रधानमंत्री आवास में लूटपाट मचाते और खाने का आनंद लेते हुए शेख हसीना की विदाई का जश्न मनाया।
सरकार की प्रतिक्रिया और मौजूदा हालात
हालांकि हसीना सरकार ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए तीन दिन की सरकारी छुट्टी और अनिश्चितकालीन कर्फ्यू की घोषणा की थी। ढाका में मोबाइल इंटरनेट सेवाओं को बंद कर दिया गया था, लेकिन ब्रॉडबैंड सेवाएं जारी थीं। शेख हसीना ने हिंसा में शामिल छात्रों को आतंकवादी तक करार दे दिया था, जिससे उनकी स्थिति और भी नाजुक हो गई। सड़कों पर मस्तकों के झुंड निकलते गए और विरोध प्रदर्शन बढ़ते गए । स्तिथि इतनी नाजुक हो गई कि सेना ने अपनी जनता पर गोली चलाने से इंकार कर दिया और पूर्व सैन्य प्रमुखों और अधिकारियों ने भी छात्रों के समर्थन का एलान कर दिया।
सबक और आगे का रास्ता
इस घटनाक्रम से कई महत्वपूर्ण सबक सीखे जा सकते हैं:
शेख हसीना के खिलाफ लगे आरोपों और छात्रों के विरोध ने यह स्पष्ट किया कि लोकतांत्रिक शासन में नेताओं को जवाबदेह होना चाहिए। जनता की मांगों को अनदेखा करना और विरोध को दबाने का प्रयास करना लंबे समय तक संभव नहीं है।
आरक्षण प्रणाली के विवाद ने समाज में न्याय और समानता के मुद्दों को उजागर किया। यह महत्वपूर्ण है कि नीतियां सभी वर्गों के लिए समान अवसर प्रदान करें और असंतोष को बढ़ावा न दें।
हिंसा और दमन के बजाय संवाद और शांति से समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए। छात्रों और सरकार के बीच संवाद की कमी ने स्थिति को और बिगाड़ा।
बांग्लादेश जैसे देश में, जहां इतिहास और संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है, राष्ट्रीय एकता और सामंजस्य बनाए रखना आवश्यक है। विभाजनकारी नीतियों से बचना और समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।
निष्कर्ष
बांग्लादेश का यह राजनीतिक संकट न केवल देश की राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इस संकट से उबरने के लिए, नई सरकार और जनता को मिलकर काम करना होगा और एक नए, अधिक न्यायपूर्ण और समृद्ध बांग्लादेश की दिशा में आगे बढ़ना होगा। शेख हसीना को प्रदर्शनकारियों से बात करनी चाहिए थी क्योंकि उनकी कोई भी मांग अलोकतांत्रिक नहीं थी। अगर हसीना मान जातीं तो उन्हें यूं बे-आबरू होकर देश से भागना नहीं पड़ता।
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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