हमारी यह पृथ्वी संभवतः ब्रह्मांड की सबसे सुन्दर रचना है। यहां अथाह सौन्दर्य भी है, विविधताओं से भरा जीवन भी और जीवन के पैदा तथा विकसित होने की सर्वाधिक अनुकूल परिस्थितियां भी।
हम और हमारा विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले,पृथ्वी से बेहतर एक ग्रह की रचना नहीं कर सकता। आप पर्वतों-सी विशालता, समुद्र-सी गंभीरता, नदियों-सी पावनता, झरनों सा कोई तिलिस्म गढ़ सकेंगे ?
आप एक पेड़ से सुन्दर कोई कविता लिख सकते हैं ? हवा की सरसराहट-सा कोई संगीत सुना हैं आपने ? आप एक फूल से बेहतर प्रेम पत्र की कल्पना कर सकते हैं ?
दुनिया की कोई भी मशीन शीतलता का वह एहसास दे सकती है जो बदन पर गिरी बारिश की बूंदें छोड़ जाती हैं ? आपके सारे धर्म और दर्शन मिलकर एक बच्चे की मासूमियत को जन्म दे पाएंगे ?
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़ !
पृथ्वी और उसकी प्रकृति के रूप में ईश्वर ने ख़ुद को अभिव्यक्त किया है। पृथ्वी पर जो भी वीभत्स, गंदा, अवांछित है वह हमारी देन है।
बदज़बान सियासतदान और मुंह देखता हिन्दुस्तान
अपने स्वार्थों के लिए और विकास के नाम पर हम जिस तरह अपनी पृथ्वी और प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, उससे वह अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से दो-चार है।
जल के तमाम स्रोत सूख भी रहे हैं और गंदे भी हो रहे हैं। हवा में जहर घुल रहा है। वृक्ष गायब हो रहे हैं। पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। ज़मीन बंजर हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग का दैत्य मुंह बांए सामने खड़ा है।
क्या हम अपने बाद एक ऐसी प्रदूषित, बंजर, बदसूरत पृथ्वी छोड़कर जाना चाहेंगे जहां हमारे बच्चें दो बूंद पानी और ताज़ा हवा के एक झोंके के लिए भी तरस जाएं ?
पृथ्वी दिवस (22 अप्रिल) के बहाने ही सही, ज़रा रूककर सोचिएगा ज़रूर !