हम तुम्हें यूं भुला न पाएंगे !
हिंदी फिल्मों की संगीत-यात्रा में मोहम्मद रफ़ी ऐसा पड़ाव है जहां कान तो क्या,कुछ देर के लिए रूह भी ठिठक जाती है। वे संगीत की वह अज़ीम शख्सियत थे जिनकी आवाज़ की शोख़ियों,गहराईयों,उमंग और दर्द के साथ इस देश की कई पीढियां जवान और बूढ़ी हुईं.
उनकी दिलफ़रेब आवाज़ और जज़्बों की रूहानी अदायगी ने हमारी मुहब्बत को लफ्ज़ बख्शे, सपनों को पंख दिए, शरारतों को अंदाज़ और व्यथा को बिस्तर अता की। आवाज़ की विविधता ऐसी कि प्रेम की असीमता से वैराग्य तक, अथाह गंभीरता से शोख़ चुलबुलापन तक, अध्यात्म की ऊंचाईयों से मासूमियत की गहराईयों तक, ग़ालिब की ग़ज़ल से कबीर के पद तक, लोकगीत से लेकर कव्वाली तक – सब एक ही गले में समाहित हो जाय।
अमृतसरके पास कोटला सुल्तान सिंह में बड़े भाई की हज़ामत की दुकान से इस उपमहाद्वीप की सबसे लोकप्रिय आवाज़ तक का उनका सफ़र किसी परीकथा जैसा लगता है।
1944 में पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ के गीत ‘सोनिये नी, हीरीये नी’ से बहुत छोटी सी शुरूआत करने वाले रफ़ी की आवाज़ को पहले संगीतकार नौशाद और बाद में शंकर जयकिशन ने निखारा और बुलंदी दी।
अपने चालीस साल लंबे फिल्म कैरियर में हिंदी, मराठी, तेलगू, असमिया,पंजाबी,भोजपुरी भाषाओं में छब्बीस हजार से ज्यादा गीतों को आवाज़ देने वाले इस सर्वकालीन महानतम गायक और सदा हंसते चेहरे वाली बेहद प्यारी शख्सियत मोहम्मद रफ़ी का देहावसान 31 जुलाई, 1980 को हुआ। उनके गुज़र जाने के बाद महान संगीतकार नौशाद ने कहा था – कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया/ साहिल पुकारता है समंदर चला गया / लेकिन जो बात सच है वो कहता नहीं कोई / दुनिया से मौसिकी का पयंबर चला गया।’
पुण्यतिथि पर रफ़ी साहब को खिराज़-ए-अक़ीदत !