चेहरे पे उभर आये हैं पाँव के आबले
दो चार क़दम साथ चले ज़िन्दगी के हम
तूने मेरी जानिब से नज़र फेरली, या तो
क़ाबिल नहीं रहे हैं तेरी ज़िन्दगी के हम
रहने लगा है चाँद, मेरे साथ रात में
मोहताज हम रहे न किसी रौशनी के हम
रोज़ एक नई ज़िद , रोज़ एक नया शौक़
क्या क्या उठाये नाज़ नहीं आशिक़ी के हम
‘साहिर’ तुम्हारी बात से होता है ये गुमां
मारे हुए हैं यार तेरी बेरुख़ी के हम
-साहिर निज़ामी
आबले– छाले