इस्लामिक कैलेंडर के सबसे पवित्र महीने माह-ए-रमज़ान की शुरुआत हो गई है। यह क़ुरआन शरीफ के दुनिया में नाजिल होने का महीना है। यह महीना इस्लाम के अनुयायियों को ही नहीं, समूची मानव जाति को प्रेम, करुणा और भाईचारे का संदेश देता है।
नफ़रत और हिंसा से भरे इस दौर में रमजान का संदेश ज्यादा प्रासंगिक हो चला है। मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम के मुताबिक ‘रोजा बन्दों को जब्ते नफ्स या आत्मनियंत्रण की सीख भी देता है और उनमें परहेजगारी या आत्मसंयम भी पैदा करता है।’ हम सब जिस्म और रूह दोनों के समन्वय के नतीजें हैं। आम तौर पर हमारा जीवन जिस्म की ज़रूरतों – भूख, प्यास, सेक्स आदि के गिर्द ही घूमता रहता है। रमजान का महीना दुनियावी चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है। जिस रूह को हम साल भर भुलाए रहते हैं, माहे रमज़ान उसी को पहचानने और जाग्रत करने का आयोजन है।
रोजे में उपवास और जल के त्याग का मक़सद यह है कि आप दुनिया के भूखे और प्यासे लोगों का दर्द महसूस कर सकें। परहेज, आत्मसंयम और ज़कात का मक़सद यह है कि आप अपनी ज़रूरतों में थोड़ी-बहुत कटौती कर समाज के कुछ अभावग्रस्त लोगों की कुछ ज़रूरतें पूरी कर सकें। रोज़ा सिर्फ मुंह और पेट का ही नहीं, आंख, कान, नाक और ज़ुबान का भी होता है। यह पाकीज़गी की शर्त है ! रमज़ान रोज़ादारों को आत्मावलोकन और ख़ुद में सुधार का भी मौक़ा है। दूसरों को नसीहत देने के बजाय अगर हम अपनी कमियों को पहचान कर उन्हें दूर कर लें तो हमारी दुनिया ज्यादा खूबसूरत, ज्यादा मानवीय होगी।
रमज़ान के महीने को तीन हिस्सों या अशरा में बांटा गया है। महीने के पहले दस दिन ‘रहमत’ के हैं जिसमें अल्लाह रोजेदारों पर रहमतों की बारिश करता है। दूसरा अशरा ‘बरकत’ का है जब अल्लाह उनपर बरकत नाजिल करता है। रमज़ान का तीसरा अशरा मगफिरत का होता है जब अल्लाह अपने बंदों को उनके तमाम गुनाहों से पाक़ कर देता है।
विश्वव्यापी संकट के इस कोरोना काल में सामाजिक फ़ासले रखते हुए घरों में ही इबादत और इफ़्तार करने वाले सभी मित्रों को माह-ए-रमज़ान की बधाई और शुभकामनाएं, मेरे एक शेर के साथ !
कौन कहता है ख़ुदा भूल गया है हमको,
ग़ैर का दर्द किसी दिल में अगर बाकी है !