होली के खुमार ने भारतीय संस्कृति में कई खूबसूरत अध्याय जोड़े हैं। ये खुमार जब अवध के नवाबों के सिर चढ़ा तो उन्होंने होली को और रंगीन बना डाला।
अवध के नवाब ईरान से आए थे। ईरानी अपना नव वर्ष नौरोज के नाम से आज भी मनाते हैं जिसमें होली की तरह रंग खेलने की परंपरा रही है। अवध के शासकों को जब भारत में होली देखने को मिली तो यह उनके लिये सुखद आश्चर्य का विषय बना। फिर तो अवध में होली के ऐसे रंग खिले जो देश की गंगा जमुनी सभ्यता में मील का पत्थर बन गए।
सत्रहवीं शताब्दी में लखनऊ में अवध के नवाब आसफ़ुद्दौला ने होली की मस्ती को नए आयाम दिये। महाराजा टिकैत राय और राजा झाऊमल अपने नौकरों के हाथ गुलाल भरे चांदी के थाल और गुलाब जल लेकर शाही महल में आते थे जिसके जवाब में नवाब की तरफ से उनकी खातिरदारी का पूरा इंतजाम होता था। नवाब और उनके दरबारी ना सिर्फ रंग खेलते थे बल्की संगीत की महफिलों का भी आयोजन होता था। जब शाही दरबार में रंग बरसने लगे तो अवाम भला कैसे पीछे रहती। अवध के छोटे राजा और जमींदार भी अवध के शासकों की तरह होली के जश्न का आयोजन करने लगे।
होली खेलने के दिलचस्प तरीके ईजाद हुए। तांबे और पीतल के बड़े बड़े कढ़ाव फूलों से बनाए गए और इत्र मिले हुए रंगों से भरे होते थे जिनमें दरबारियों को भिगोया जाता था। सफेद मलमल के कलफ लगे हुए कुर्ते पहन कर होली खेलने आने का रिवाज नवाबों के दरबारों से होता हुआ शहर के संभांत लोगों की ड्योढ़ियों तक पहुंचा।
वाजिद अली शाह के हुक्म से ही लखनऊ में होली की बारात निकलने का चलन शुरू हुआ
बाद में नवाब वाजिद अली शाह के सत्ता संभालने के बाद तो होली का जैसा रंगीन माहौल अवध में हुआ करता था उसका मुकाबला जयपुर के रजवाड़े और मुगल दरबार भी नहीं कर पाए। वाजिद अली शाह के हुक्म से ही लखनऊ में होली की बारात निकलने का चलन शुरू हुआ। बारात में रंगों से भरे बड़े बड़े बर्तन बैलगाड़ियों और तांगों पर रख कर जुलूस की तरह चलते थे ये बारात पूरे शहर में घूमा करती थी। शहर के गणमान्य लोग अपने अपने इलाके में बारात का स्वागत करते थे। इसमें हिंदुओं और मुसलमानो की बराबर की भागीदारी होती थी। आगे चल कर बारात में भांडों की टोली शामिल होने लगी जो अपने अभिनय से लोगों का हंसा हंसा कर बुरा हाल कर देते थे।
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इतना ही नहीं संगीत के रसिया और मर्मज्ञ वाजिद अली शाह के दौर में होली से संगीत का भी गहरा जुड़ाव हुआ। होली संबंधित गीत लिखे गए जिन्हें लोक और शास्त्रीय संगीत का पुट देते हुए दरबारों, कोठों, और महफिलों में गाया जाने लगा। फागुन का महीना शुरू होते ही अवध के खटिक और बृज के रहसधारियों की टुकड़ियां लखनऊ के ऐशबाग में डेरा डाल देती थीं और फिर लोक संगीत की लुत्फ उठाने खुद वाजिद अली शाह उनके बीच आ बैठते थे। मीरासिनो की टोलियां जनानी ड्योढ़ियों में जा जा कर होली गाया करती थीं।
वो तो यूं ही सखिन के पीछे पड़े
छोड़ो छोड़ो गुंइयां उनसे कौन लड़े
नवाब आसफुद्दौला और नवाब सआदत अली खां के समय में उजरा और दिलरूबा नाम की तवायफें होली गाने में अपना जवाब नहीं रखती थीं। वाजिद अली शाह के जमाने में जोहरा, मुश्तरी, गौहर, मुसरिम वाली और चूने वाली हैदरी ने भी बड़ा नाम कमाया। उनके गाए फाग के कई टुकड़े आज भी लखनऊ और उसके आस पास के इलाकों में दोहराए जाते हैं
नंदलाल बिन कैसे खेलूं मैं फाग
ऐसी होली में लग जाए आग
होली की रौनक हंगामे में बदलती चली गयी
अवध की होली का दिलकश और दिलचस्प रूप 1857 तक बना रहा। इसके बाद सत्ता के बिखराव के साथ ही समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आए जिससे होली का पारंपरिक स्वरूप भी नहीं बच सका। वैसे भी समय सब कुछ बदल देता है। होली की रौनक हंगामे में बदलती चली गयी। यह हंगामा अराजकता में बदल गया। अवध में होली तो आज भी खेली जाती है लेकिन नवाबों की होली इतिहास के पन्नो और किस्सों में सिमट कर रह गयी है।
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