प्रधानमंत्री को चुनावी रैली में भी एक स्टेट्समैन की तरह बोलना चाहिये न कि किसी छुटभइये नेता की तरह घंटाघर पर ललकारने वाले भाषण की शैली मेँ। पिछले प्रधानमंत्रियों के चुनावी भाषण ऐसे ही रहे हैं।
माना कि मोदी एक अग्रेसिव प्रचारक हैं और उन्हे झूठ सच का फ़र्क खत्म करके भाषा की मर्यादा के इतर नाटकीय भाषणबाजी से वोट मांगने हैं। मोदी का समर्थक भी उनसे ऐसी ही अपेक्षा भी करता है। लेकिन इंटरव्यू को तो कमसकम इस स्तर से उपर रख्ना चाहिये।
इंटरव्यू लेना और देना एक अलग विधा है। इसका ऑडियंस भी व्यापक होता है। आमजन के अलावा चुनाव के दौरान के प्रधानमंत्री के इंटरव्यू को भी सभी दूतावासों में ध्यान से देखा जाता है, देश और देश के बाहर के संपादक, ब्यूरोक्रेट, राजनयिक, उद्योगजगत और उसके थिंक टैंक, नीतियों पर काम करने वाली संस्थायें, जज, वकील, राजनीतिक पार्टियां और बुद्धिजीवी वर्ग भी सरकार के मुखिया की कही बातों पर नज़र रखते हैं।
इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार पर दबाव रहता है कि वो प्रधानमंत्री से बातचीत में कोई बड़ी खबर निकाले, उसे बार बार कुरेदना
पड़ता है कि प्रधानमंत्री से स्टेटेड पोज़िशन ( मुद्दों पर चिर परिचित रुख) से आगे ले जाये ताकि कोई नई बात निकलवा सके। जितना भी समय मिला है उसमे ज्यादा से ज्यादा विषयों पर सवाल कर सके और जो अभी तक नहीं छपा या बोला है वैसा कुछ दर्शकों को मिल सके। इसके लिये उसका रिसर्च अच्छा होना चाहिये।
इंडिया टुडे के तीन पत्रकारों के साथ प्रधानमंत्री मोदी का सवा धंटे के इंटरव्यू में ऐसा कुछ भी नहीं था। सवालों के नाम पर विपक्ष के आरोप दोहराये गये, वो भी हल्के अंदाज़ में और प्रधानमंत्री को विपक्ष के खिलाफ़ मंच देने की नीयत से।
सोच कर देखिये कि अगर आप उपर दिये ऑडियंस में से हैं तो आपके लिये क्या है इस इंटरव्यू में। क्या इसमे सरकार की किसी नीति या प्रोग्राम के बारे में कोई नई और तथ्यपरक बात दिखी या घरेलू और विदेशनीति कर कोई विज़न या भविष्य का रोडमैप का अंदाज़ लगता है?
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प्रधानमंत्री सूचनाओं का भंडार होता है। सरकार की सभी गतिविधियों का आखिरी गेट है पीएमओ अगर इस इंटरव्यू में ऐसा कुछ नहीं है जो खबर बने तो कमी उन पत्रकारों की है जिन्हे ये मौका मिला और उन्होने गंवा दिया।
अब ये तो कोई खबर न हुई कि प्रधानमंत्री ने इंडिया टुडे को इंटरव्यू दिया।
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