हमारे उत्तर प्रदेश में में एक प्रथा दशकों तक चलन में रही है कि जिस साल स्कूल प्रधानाचार्य रिटार्यड होता था उस साल वह अपने स्कूल में बोर्ड परीक्षा में पैसा लेकर खूब नक़ल कराता था। ऐसा इस लिए होता था कि शायद थोड़ा लिहाज़ बाकी था के चोरी के बाद लौंगो से आँखे केसे मिलाएगें क्योंकि अब रिटार्यड हो गय हैं तो सीधे घर, गांव चले जाएगें और जो बदनामगी होना है पीछे होगी।
लेकिन आज लोंगो में इतना साहस और बहादुरी कूट-कूट कर भरी है कि पोस्ट पर आते ही असंवेधानिक रूप से बिना लोकलाज की परवाह किए कालेज स्कूल एव विश्वविधालयों के नियमों का उलंघन करके ना सिर्फ एडमिशन कर रहे हैं बल्कि अपने मातहत लौंगो पर खूब दबाव बना रहे हैं कि वह भी उनके हर अच्छे बुरे फेसलों को स्वीकारें।
अब बात आती है ईमानदारों और संस्थाओं प्रेमी अफसरों और अध्यापकों की, तो क्या ऐसे फैसलों को स्वीकारने वाले अफसरों को ईमानदारो की श्रेणी में रखना उचित है? भ्रष्ट अफसर की मजबूरी थी रिश्वत लेना मगर इनकी कौन सी मजबूरी थी जो ना सिर्फ बेइमानी होता देख रहे है बल्कि उसमें साथ भी दे रहें हैं।
ईमानदारी के लिए खामोशी और बुज़दिली एक बड़ी रुकावट है। इस लिए ईमानदार को बहादुर और आवाज बुलन्द करने वाला भी होना चाहिए।
ईमानदार को अति महत्वाकांक्षी भी नहीं होना चाहिए यही वह एक रोड़ा है जो इन्सान को ईमानदार और नेक और बहादुर बनने से रोकता है।
ईमानदारों की रहती दुनिया तक चर्चे होते हैं बेईमानों की क़बरो पर साँप रेंगते हैं। इस दुनिया के बाद की जिन्दगी असल जिन्दगी है आइए उस जिन्दगी की तैयारी करें अपने अन्दर पनप रहीे अतिमहत्वाकाक्षाओं को अपने से दूर करें; गलत बातों को सर झुकाकर तसलीम न करें; बुलंदियों को महनत से हासिल करने की कोशिश करें चमचागीरी से नहीं! जब ऐसा होगा तो हम ना सिर्फ अपने बहतर किरदार का निर्माण करेंगे अपितु देश निर्माण में भी हम सहयोग कर सकेंगे !
जय हिन्द!
नोट – लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के सीनियर सेकंडरी स्कूल में टीचर हैं।