‘हिंदू’
यह एक ऐसा शब्द है जिसके आसपास आज भारत की सियासत घूम रही है। मगर ख़ुद इस शब्द के बारे में सही जानकारी नहीं मिलती कि यह कहां से आया है और इसका मतलब क्या है?
आमतौर पर इसे फारसी का शब्द माना जाता है।
इस बारे एक भ्रम जो पैदा किया गया है वह यह है कि यह ‘सिंधु’ शब्द से बिगड़ कर बना है क्योंकि फारसी लोग ‘स’ को ‘ह’ बोलते हैं जैसे सप्ताह को हफ्ता बोला जाता है। कुछ कहते हैं कि फारसी लोग ‘स’ नहीं बोल पाते हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि फारसी में ‘स’ से शुरू होने वाले शब्द में ‘स’ को ‘ह’ बोला जाता है। आमतौर पर इस थ्योरी को मान लिया जाता है। और यह लफ्ज़ हमारे दिमाग़ में इसी तरह जगह बना चुका है।
मगर ऐसा कुछ मानते वक़्त इस बात पर ग़ौर नहीं किया जाता कि ख़ुद “फारसी” में ‘स’ है। ‘स’ फारसी भाषा का पांचवा अल्फाबेट है। फारस के लोगों की धार्मिक किताब अवेस्ता में ‘स’ मौजूद है और उनके मज़हबी रहनुमा ज़ुरुस्त्रुत के नाम में भी ‘स’ मौजूद है। वहां के राजा शाह और महाराजा बादशाह या शहंशाह कहलाते थे जिनमें ‘श’ का ख़ूब इस्तेमाल हुआ है।
यहां कुछ फारसी लफ्ज़ दर्ज हैं जिनकी शुरुआत ‘स’ से होती है: सब्ज़ी, सम्बूसा (समौसा), सरोद, सत्रप (क्षत्रप), स्कारलेट (इंग्लिश में इस्तेमाल होता है), सेर, सिपाही, सराय, शाह, शाहीन, शामियाना, शाॅल, शिकार, शहर, सरकार, सवार, स्तान (जैसे सिस्तान), स्याह, सुर्मा, शीराज़ (ईरान का मशहूर शहर), शक्कर वग़ैरह।
पुराने ज़माने से लेकर बाबरनामा तक हिंदू शब्द का अर्थ “काला” ही लिया जाता था।
हक़ीक़त यह है कि “हिंदू” शब्द फरसी के साथ-साथ कई सेंट्रल एशियाई ज़ुबानों में इस्तेमाल होता है जहां इसका मतलब होता है “काला”। इन ज़ुबानों में अगर यह सिंधु से बिगड़ कर पहुंचता तो वहां हिंदू का मतलब नदी होता, मगर ऐसा नहीं है। पुराने ज़माने से लेकर बाबरनामा तक हिंदू शब्द का अर्थ “काला” ही लिया जाता था। पश्चिमी एशिया और सेंट्रल एशिया से जो लोग भारत आये वे गोरे रंग के थे और काले रंग के लोगों को वे हिंदू कहते थे। शुरू में ये काले लोग सिर्फ आज जिसे सिंध कहते हैं वहां आबाद थे इसलिए ईरान के बादशाह डेरियस महान ने जब 490 ईसा पूर्व इस इलाक़े को अपने साम्राज्य में मिलाया तो उसने इस सूबे का नाम हिंदुश रखा जिसे बाद में हिंदुस्तान कहा जाने लगा। नक़्शे रुस्तम पर इस सूबे का नाम ‘हिंदुश’ ही लिखा है।
चौदहवीं सदी के फारसी अदब के सबसे मुमताज़ नाम हाफिज़ शीराज़ी के सूफीनामा का मशहूर शेर है:
अगर आन तुर्क-ए-शीराज़ी बदस्त आरद दिल-मारा
बख़ाले हिंदुअश बख़्शम समरकंदो-बुख़ारा
(अगर वो तुर्क शीराज़ी मेरे दिल को अपने हाथ में लेना क़ुबूल करले तो मैं उसके चेहरे के काले तिल के बदले उसे समरकंद और बुख़ारा जैसे शहर दे सकता हूं; यहां ‘काले’ तिल का रंग हिंदुअश कहा गया है)
हैरत तो तब होती है जब विकिपीडिया पर इस शेर में ‘ख़ाले हिंदुअश’ का तर्जुमा “इंडियन मोल” किया गया है यानी “भारतीय तिल”। क्या किसी महबूब का तिल भी ईरानी या भारतीय हो सकता है? मगर ‘हिंदू’ शब्द के बारे में जिस तरह से भ्रम पाया जाता है, लोग इसके अर्थ का अनर्थ तो करेंगे ही।
यहां बहादुरशाह ज़फर के दरबार में शामिल मशहूर शायर इब्राहीम ज़ौक़ का एक शेर भी अहम है, जो इस तरह है:
ख़त बढ़ा, काकुल बढ़े, ज़ुल्फ़ें बढ़ीं, गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े।
यहां भी दाढ़ी और ज़ुल्फ़ों में काले बालों के बढ़ने को “हिंदू बढ़े” कहा गया है। इससे यह भी साबित होता है कि अट्ठारहवीं सदी तक हिंदू शब्द का मतलब फारसी और उर्दू में ‘काला’ रंग होता था।
सही बात यही महसूस होती है कि इस शब्द का मतलब ‘काला’ रंग है और यह फारसी से निकला है न कि सिंधु या सप्त सैंधव से बिगड़ कर हिंदू हो गया है। अगर ऐसा होता तो वेद, पुराण, रामायण, गीता, वग़ैरह में कहीं तो यह इस्तेमाल होता। हिंदुत्ववादी यहूदी स्कालर स्टीफन नैप ने भी माना है कि हिंदू शब्द का संस्कृत से कोई रिश्ता नहीं है।
(नोट- यह लेख अब्दुल रशीद अफ़ग़ान की फेसबुक वाल से लिया गया है। उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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