“नीम निगाह”
जैसे-जैसे चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति होती जा रही है, जीवन बचाने और स्वास्थ्य में सुधार के लिए अंगदान पूरी इंसानियत के लिए एक वरदान बनकर उभरता जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि एक डोनर के शरीर के अंग 50 लोगों तक की जान बचाने या उन्हें मदद करने में मददगार हो सकते हैं। अधिकांश अंग और टिशू डोनर की मौत के बाद लिए जाते हैं लेकिन कुछ अंग और टिशू ऐसे भी होते हैं जिसे डोनर अपनी जिंदगी में भी दान कर सकता है और इससे डोनर की सेहत को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचता। सभी उम्र और बैकग्राउंड के लोग अंगदान कर सकते हैं। लेकिन मुसलमानों के लिए, यह सवाल कि क्या अंगदान इस्लामिक सिद्धांतों के अनुरूप है, एक महत्वपूर्ण बहस और चर्चा का विषय बना हुआ है। इसका सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जरूरत पड़ने पर ट्रांसप्लांट के लिए किसी का अंग लेने में मुसलमानों को कोई परहेज़ नहीं है, बस देने से गुरेज़ है। अरे भाई, कोई मुझे यह समझाए कि जो चीज़ लेना हलाल है, किसी को देना कैसे हराम हो सकता है?
अंगदान पर इस्लामिक बहस
इस्लाम में जब जब अंगदान पर बहस होती है तब तब विरोधी स्वर यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि हदीस की किताबों में इसकी गुंजाईश नहीं मिलती, क़ुरान में कहीं इसकी इजाज़त नज़र नहीं आती। अब इन उलेमा ए कराम को मेरे जैसा एक बे अमल इंसान कैसे समझाए कि हदीस की किताबों में उन्हीं मसायल, हालात और वाकियात का जिक्र है जो पैगंबर मुहम्मद(सल्लल्लाहू अलेही व सल्लम) के ज़माने में रुनुमा हुए। लाउडस्पीकर की भी तो गुंजाईश या इजाज़त हदीस और कुरान में नहीं है। तो क्या लाउडस्पीकरों पर अज़ान देना हराम मान लिया जाए? जहां तक कुरान की बात है, इसमें इशारों में सारी बातें मौजूद हैं जिनका मुताला अगर हम खुले ज़हन से करें तो हमें जिंदगी गुजारने में कयामत तक रहनुमाई मिल सकती है। पवित्र क़ुरान की सुरा अल माएदा की 32वीं आयत है, “और जिसने एक जीवन को बचा लिया – मानो उसने पूरी मानवता को बचा लिया।” अगर किसी को इस आयत में अंगदान की इजाज़त नज़र नहीं आती तो मुझे ताज्जुब है।
अंगदान के समर्थन में फ़तवा
अंगदान के विरोधी स्वरों के बीच हाल के वर्षों में, कई इस्लामी विद्वानों और संस्थानों ने अंगदान के समर्थन में भी फतवे दिए हैं। 1988 में ‘इस्लामी फिकह अकादमी’ ने एक फतवा जारी किया था जिसमें कहा गया था कि डोनर और उनके परिवार की सहमति से किसी की जान बचाने के लिए अंगदान जायज़ है। प्रतिष्ठित मुस्लिम संस्थान ‘अल-अज़हर विश्वविद्यालय, मिस्र ‘ के विद्वानों ने भी इन्हीं शर्तों पर अंगदान का समर्थन किया है। इसी तरह ‘यूके मुस्लिम लॉ (शरीयत) काउंसिल’ ने भी इसकी इजाजत दी है और यहां तक कहा है कि अंगदान को सदका (धर्मार्थ कार्य) के रूप में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि जो काम मौत के बाद भी दूसरों के लिए फायदेमंद हो, अल्लाह उसका सवाब देता है। भारत के उलेमाओं के बीच से भी कुछ आवाजें अंगदान के समर्थन में उठी हैं जो आहिस्ता आहिस्ता अपना असर भी दिखा रही हैं।
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान का दृष्टिकोण
अंगदान के पक्ष में एक प्रमुख आवाज़ प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान की है, जो इस विषय पर व्यापक रूप से लिख चुके हैं। मौलाना का मानना था कि अंगदान की इस्लाम में न केवल इजाजत है, बल्कि यह एक महान पुण्य का काम भी है। वह इसे ‘सदक़ा ए जारिया’ के रूप में देखते थे, जिसमें किसी के अच्छे कर्मों के फल उसकी मृत्यु के बाद भी उस तक पहुँचते रहते हैं।
वह यह भी कहते थे कि यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के बाद अपने अंगों का दान करता है और इन अंगों से अन्य लोगों को स्वास्थ्य लाभ होता है, तो इस दया कार्य के लिए परलोक में अल्लाह उसे इनाम से नवाजता है। उनका यह दृष्टिकोण अंगदान को इस्लामी मूल्यों जैसे करुणा, उदारता और इंसानियत के साथ जोड़ता है।
सैय्यद तारिक़ अब्दुल्लाह का योगदान
एक अन्य सम्मानित इस्लामिक विद्वान, सैय्यद तारिक़ अब्दुल्लाह ने भी इस मुद्दे पर अपनी राय दी है। अब्दुल्लाह अंगदान के आसपास की नैतिक जटिलताओं को स्वीकार करते हैं, लेकिन इस्लामी नैतिकता की रूपरेखा के भीतर इसे प्रोत्साहित करने के पक्ष में हैं।
वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि प्रक्रिया पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए, डोनर की इच्छाओं का सम्मान किया जाना चाहिए और दान का लाभ जरूरतमंदों तक पहुँचाने में पूरी ईमानदार बरती जानी चाहिए, इसे किसी के द्वारा धंधा नहीं बनाया जाना चाहिए। अंगदान को प्रोत्साहन देने के लिए वह जल्द ही पूरे हिंदुस्तान में एक अभियान भी शुरू करने जा रहे हैं। तारिक अब्दुल्लाह का यह दृष्टिकोण इस्लामी विद्वानों के बीच बढ़ती सहमति को दर्शाता है।
व्यक्तिगत निर्णय
इस्लामिक समुदाय के भीतर अंगदान पर बहस जारी है, कई विद्वानों के बीच सहमति है कि इस्लामिक दिशानिर्देशों के अनुसार किए जाने पर अंगदान एक नेक और करुणामय कार्य है जो इस्लाम के मूल्यों के अनुरूप है। वहीं दूसरी ओर ऐसे भी आलिम और मौलवी हैं जो अंगदान की संज्ञा ‘मुसला ‘(शरीर के विरुपण) से देकर इसका अब भी विरोध कर रहे हैं। मुसला उस अमानवीय कृत्य को कहते हैं जिसमें युद्ध के दौरान दुश्मनों की लाशों को घोड़ों से कुचलवाया जाता था। उदारवादी इस्लामिक विद्वानों के नजदीक यह तुलना सही है क्योंकि अंगदान और मुसला में अंतर नियत और इरादे का है।
आखिरकार अंगदान एक अत्यंत ही व्यक्तिगत फैसला है। मुसलमानों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे जानकार विद्वानों से मार्गदर्शन प्राप्त करें और मानवता की सेवा में अपना भी योगदान दें।
इस्लाम की नैतिक शिक्षा तो यही है ना कि अपने दिल में दूसरों के प्रति करुणा का भाव पैदा किया जाए। दर्द ए दिल के वास्ते तो ही अल्लाह ने इंसान को पैदा किया है वरना इबादत के लिए तो फरिश्ते ही काफी थे। इक़बाल कहते हैं,
“दर्द ए दिल के वास्ते खुदा पैदा किया इंसान को
वरना ताअत के लिए कम न थे कर्रोबयां “
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.)