मेरठ का एक पुराना क़स्बा है किठौर। यहाँ की धरती बहुत उपजाऊ है। सिर्फ इस मायने में नहीं कि वहां फसलों की उपज अच्छी होती है, बल्कि इस धरती ने अनगिनत सियासी हस्तियाँ भी पैदा की हैं। ग्राम प्रधान के चुनाव से सियासी अखाड़े में पदार्पण करने वाली इन हस्तियों ने लखनऊ तक का सफर तय किया है, जहां सत्ता के गलियारे में उनके कदमों की चाप आज भी सुनाई देती है।
बात 1940 के दशक की है । किठौर की एक बहुत बड़ी सियासी हस्ती थे मौलाना बशीर अहमद भट्टा। उत्तरप्रदेश विधान परिषद के सदस्य थे। लखनऊ का दारुल शिफा विधायक निवास उन्हीं की देख रेख में बना था। 1950 के दशक में परिवार की युवा पीढ़ी भी सियासत के आसमान में उड़ान भरने के लिए अपने पर तौल रही थी। किसी दिलचस्प फिल्मी पटकथा की तरह इस कहानी में पहला मोड़ तब आया जब परिवार के ही एक सदस्य अब्दुल हलीम खान ने प्रधान का चुनाव लडने की ख्वाहिश का इज़हार कर दिया।
परिवार में इसका भरपूर विरोध हुआ और अब्दुल हलीम खान की काट के लिए सभी ने सहमति से एक दूसरे नौजवान सखावत हुसैन को ग्राम प्रधान के चुनाव में अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। असली ड्रामा तो तब शुरू हुआ जब कहानी में तीसरे किरदार की एंट्री हो गई। हुआ यह कि अब्दुल हलीम खान ने सखावत हुसैन को हराने के लिए परिवार के ही सदस्य समझे जाने वाले मंजूर अहमद को चुनावी दंगल में उतार दिया। यहां गौरतलब बात यह है कि अब्दुल हलीम खान सख़ावत हुसैन के रिश्ते के चाचा थे मगर उम्र में उनसे छोटे थे। खैर किस्सा मुख़्तसर यह कि इस चुनाव में सख़ावत हुसैन जीत गए।
समय का पहिया आगे बढ़ता गया। 1967 में चौधरी सख़ावत हुसैन , अब्दुल हलीम ख़ान और मंजू़र अहमद तीनों अलग अलग क्षेत्रों से विधान सभा का चुनाव लड़े, जिनमें से सिर्फ मंजूर अहमद सफल रहे, बाकी दोनों सख़ावत हुसैन और अब्दुल हलीम ख़ान चुनाव हार गए। नतीजों का ये सिलसिला अगले तीन विधान सभा चुनावों तक जारी रहा।
ग्राम प्रधान के चुनाव से जो राहें जुदा हुई थीं वो वक्त के साथ साथ और भी दूर होती गईं। अब्दुल हलीम खान हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ कांग्रेस की सियासत करने लगे। दूसरी तरफ सख़ावत हुसैन ने 1972 में चौधरी चरण सिंह की दलित मजदूर किसान पार्टी ज्वाइन कर ली। 1975 में जब इंद्रा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की तो सख़ावत हुसैन ने 19 महीने जेल में काटे। आपातकाल जब ख़त्म हुआ तो किस्मत ने फिर से चौधरी सख़ावत हुसैन और अब्दुल हलीम ख़ान को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर खड़ा कर दिया। हुआ यह कि आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी बनी तो हेमवतीनंदन बहुगुणा भी अपने समर्थकों के साथ जनता पार्टी में शामिल हो गए। सख़ावत हुसैन मेरठ की जनता पार्टी के जिला अध्यक्ष बना दिए गए।
1977 के विधान सभा चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर सख़ावत हुसैन गढ़ मुक्तेश्वर से और अब्दुल हलीम ख़ान खरखौदा से निर्वाचित हुए। उधर कहानी के तीसरे किरदार मंजूर अहमद ने भी मेरठ शहर से कांग्रेस के टिकट पर अपनी जीत दर्ज की। इस चुनाव में बहुगुणा गुट के आठ विधायक जीत कर आए थे और उन्होंने सभी के लिए मंत्रीपद मांगा और अब्दुल हलीम ख़ान राज्यमंत्री बने। चौधरी सख़ावत हुसैन के नाम का भी आकाशवाणी से एलान हुआ था लेकिन वो कुछ राजनीतिक कारणों से शपथ नहीं ले सके थे।
1980 में भी तीनों लड़े और मंजूर अहमद पांचवीं बार विघान सभा पहुॅचे।1984 में इंद्रा गांधी की हत्या के बाद मंजूर अहमद दलित मजदूर किसान पार्टी में आ गए। मोहसिना किदवई के ख़िलाफ लोक सभा चुनाव लड़े और हार गए। तीन महीने बाद हुए विधान सभा चुनाव में भी कांग्रेस के पंडित जय नारायण शर्मा से हार गए। यहीं से उनके लंबे राजनीतिक करियर का अंत हो गया।
1985 में चौधरी सख़ावत हुसैन मुरादनगर से कांग्रेस प्रत्याशी ईश्वर दयाल त्यागी को हराकर विधान सभा पहुंचे। पुराने जानकर कहते हैं कि 1987 में जब चौधरी चरण सिंह बीमार हुए और अजीत सिंह अमरीका से वापस आए तो उन्हें चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत का उतराधिकारी घोषित करने का श्रेय चौधरी सख़ावत हुसैन, सरधाना के अब्दुल वहीद कुरैशी और सहारनपुर के क़ाज़ी रशीद मसूद सरीख़े नेताओं के सर ही जाता है।
1989 में जब जनता दल के टिकट पर सख़ावत हुसैन मुरादनगर से चुनाव हार गये। अब्दुल हलीम खान किठौर से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन जनता दल का टिकट उनके चार बेटों में से मंझले बेटे परवेज़ हलीम को दिया गया जिन्होंने मंजूर अहमद के छोटे भाई और बसपा प्रत्याशी मोहम्मद इलियास को हराया। परवेज़ हलीम बहुत ही कम उम्र में विधायक बनने में कामयाब हो गए। इसी ख़ानदान के एक और सदस्य डॉक्टर शमीम अहमद जो कि मुरादाबाद में मेडिकल प्रैक्टिस करते थे और पहले कई चुनावों में इंसाफ पार्टी और मुस्लिम लीग से लड़ चुके थे, वह भी इस चुनाव में मुरादाबाद से जनता दल के टिकट पर सफल हुए
ग्राम प्रधान के चुनाव से शुरू हुई सियासी रस्साक़शी का यह सिलसिला किसी फिल्म के सीक्वेल की तरह अब अगली नस्ल में पहुंच चुका है। बस किरदार बदल गए हैं लेकिन पॉलिटिकल थ्रिल वही है।अब्दुल हलीम ख़ान के बच्चों में परवेज़ हलीम लंबे समय से लोक दल से जुड़े हैं। 1989 और दूसरी बार 1996 में जीते,1996 के इसी चुनाव में मंजूर अहमद कांग्रेस के टिकट पर ये आख़िरी बार लड़े और कुछ समय बाद उनका देहांत हो गया।
2002 के चुनाव में मंजूर अहमद के छोटे बेटे शाहिद मंजूर ने परवेज़ हलीम को हराया। शाहिद मंजूर किठौर से तीन बार विधान सभा का चुनाव जीत चुके हैं और पिछली अखिलेश सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं।इस बार भी वह गठबंधन के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
2006 में किठौर की सरजमीं से ही एक और राजनीतिक घराने का उदय हुआ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में आज बसपा के मुनकाद अली किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वह 2006 से लेकर 2018 तक राज्य सभा सदस्य रहे। बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं और मायावती के बहुत ही करीबी नेताओं में उनकी गिनती होती है। अभी उनकी बहू नगर पालिका अध्यक्षा हैं।
सख़ावत हुसैन 2010 मे चल बसे। उनकी इकलौती बेटी शादी गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में मंत्री रहे चौधरी लताफत हुसैन के बेटे से हुई, और उनकी संतानें चुनावी राजनीति से दूर हैं। चौधरी सख़ावत हुसैन के बड़े नाती फिल्म निर्माता एवं निर्देशक शोएब हुसैन चौधरी कहते हैं, ” मैं बचपन से अपने नाना के साथ मेरठ में ही रहा। नाना और मंजूर साहब के बीच राजनीतिक दूरियां भले ही कितनी भी रही हों लेकिन मेरठ में दोनों घरों के बीच सिर्फ एक दीवार का फासला है। दोनों का जब भी सामना हुआ बड़े अदब और एहतराम से मिले और परिवारों में यही सिलसिला आज भी जारी है”।
किठौर में ग्राम प्रधान के चुनावी थिएटर में जो फिल्म शुरू हुई थी वह आज भी चल रही है। बस कहानी के प्लॉट्स और किरदार बदल रहे है। ऐसे में बस एक फिल्मी डायलॉग याद आता हैं और वो डायलॉग है, ” अभी पिक्चर बाकी है मेरे दोस्त “।
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