इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उर्दू पत्रकारिता-डॉ. मुज़फ़्फ़र हुसैन ग़ज़ाली

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उर्दू पत्रकारिता के दो सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस दौरान उसने कई उतार-चढ़ाव देखे। उसने गुलामी से मुक्ति आंदोलन देखा। उसने एक ओर लोगों की समस्याओं पर प्रकाश डाला और दूसरी ओर शासकों के उत्पीड़न की कहानी सुनाई। वह जल्द ही एक बात करने वाला दर्पण बन गई। जिसमें जीवन और समाज के सारे रंग नजर आए और हर दिल की धड़कन सुनाई दी। उसने देशभक्ति की भावना पैदा की और उन लोगों को प्रोत्साहित किया जो स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध की विफलता से निराश थे।

उर्दू पत्रकारिता ही थी जिसने लोगों के दिलों में आज़ादी का दीया जलाया। परिणामस्वरूप, उर्दू पत्रकारों को कारावास की कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। अखबारों को बंद कर दिया गया और प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया गया।

ब्रिटिश सरकार ने उर्दू अखबारों और पत्रिकाओं की लोकप्रियता और लोगों पर उनके प्रभाव को अपने लिए खतरा माना। उस समय, सरकार के मुख्य सचिव बेले के साथ विलियम वर्ल्ड ने पहले उर्दू सार्वजनिक समाचार पत्र “जामें जहां नुमा” में प्रकाशित लेखों, काव्य रचनाओं और रिपोर्ट्ज़ द्वारा समाज में पैदा हुए उत्साह को देखते हुए एक गुप्त फाइल तैयार की थी। उन्होंने “जामें जहां नुमा” पर नियंत्रण और सेंसरशिप का निर्देशन किया। नतीजतन, पहला प्रेस अधिनियम 1823 में लागू हुआ।

विकास के दौर से गुजरते हुए, उर्दू पत्रकारिता ने कई प्रयोग किए

विकास के दौर से गुजरते हुए, उर्दू पत्रकारिता ने कई प्रयोग किए। पत्रकारिता मूल्यों, नियमों और विनियमों की स्थापना की और प्रचार और प्रकाशन के नए साधनों का इस्तेमाल किया। साप्ताहिक “दिल्ली उर्दू अख़बार” इसका एक उदाहरण हैमौलवी मुहम्मद बाकिर के संपादकीय में लिथो प्रेस में प्रकाशित होने वाला यह पहला समाचार पत्र था। इसमें शेख इब्राहिम ज़ौक़, बहादुर शाह ज़फ़र, मिर्ज़ा ग़ालिब, हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल, मिर्ज़ा मुहम्मद अली बख़्त, हैदर शिकोह, मिर्ज़ा नूरुद्दीन और अन्य के दिलचस्प, मनोरम लेख, भाषण भी शामिल थे। लेकिन इसका असली उद्देश्य साम्राज्यवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता था। उन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ क़लमी जिहाद किया था।

देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले पहले पत्रकार

17 मई, 1857 में प्रकाशित 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुई घटनाओं पर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसे अंग्रेजों ने “ग़दर” का नाम दिया। मौलवी मुहम्मद बाक़र ने अख़बार में ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ लेख प्रकाशित किए जिससे भारतीयों का उत्साह बढ़ा लेकिन फिरंगियों में बौखलाहट पैदा हो गयी। मौलवी साहब ब्रिटिश सरकार की नज़रों में खटकने लगे। उन्हें गिरफ्तार करके 16 सितंबर 1875 को दिल्ली गेट के सामने बाहर खूनी दरवाज़े के सामने मैदान में टॉप के गोले से शहीद कर दिया गया। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाला वाला पहला पत्रकार उर्दू ही का था।

पहला उर्दू दैनिक

अब्दुल सलाम खुर्शीद के अनुसार, उर्दू दैनिकों का युग 1857 के बाद शुरू हुआ। पहला उर्दू दैनिक “उर्दू गाइड” 1858 में कलकत्ता से मौलवी कदीरुद्दीन अहमद खान द्वारा शुरू किया गया था। 1875 में लाहौर से “रोज़नामचा पंजाब” और “रहबर हिंद” समाचार पत्र शुरू हुए।

यह ऐसा दौर था जिसमें उत्तर और दक्षिण के विभिन्न शहरों से दैनिक, तीन दिवसीय, साप्ताहिक समाचार पत्र और मासिक पत्रिकाएं जारी की जाती थीं। मौलाना इमदाद साबरी ने अपनी चार खंडों की पुस्तक “उर्दू पत्रकारिता” में उनका विस्तार से उल्लेख किया है। इनमें जामी-उल-अखबर, शम्स-उल-अखबार, सुबह-ए-सादिक, तिलस्म हैरत, ज़ेरेआज़म मद्रास, मुखबर डेक्कन, आफताब डेक्कन, पैसा अखबार स्ट्रीट, भारत, देश लाहौर, दीपक अमृतसर, उर्दू माली कानपुर शामिल हैं। जमींदार लाहौर, हिंदुस्तानी, अल-हिलाल, हमदर्द, मुस्लिम गजट, मदीना बिजनौर, हमदम लखनऊ, स्वराज इलाहाबाद ने लोगों में राजनीतिक चेतना जगाई और उन्हें राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों में अधिक भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन ने इन अखबारों को लोकप्रिय बना दिया।

दूसरी ओर, अवध अखबार और साल्ह कल जैसे समाचार पत्र उदारवादी पत्रकारिता के नमूना थे। उस समय के राष्ट्रीय आंदोलनों ने भी उर्दू अखबारों, पत्रिकाओं और पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आजादी से पहले, अधिकांश समाचार पत्र स्थानीय रूप से प्रकाशित होते थे

आजादी से पहले, अधिकांश समाचार पत्र स्थानीय रूप से प्रकाशित होते थे। उस समय विभिन्न शहरों से संस्करण जारी करने का चलन नहीं था। लेकिन रेडियो के आने के बाद, प्रसारण पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित समाचार केवल साक्षर ही पढ़ सकते थे। जो पढ़ना नहीं जानता वह मोहताज रहता कि अखबार से पढ़कर उसे सुनाया जाए।

रेडियो (1 जनवरी, 1936), फिर टेलीविजन (15 अगस्त, 1965) ने जब आधुनिक मीडिया में प्रवेश किया, तो इसने वास्तव में मीडिया की दुनिया में क्रांति ला दी। वितरण का दायरा प्रत्येक विशेष जनता और साक्षर और निरक्षर दोनों के लिए समान रूप से फायदेमंद साबित हुआ। रुचि बढ़ी और फिर रेडियो से पॉकेट ट्रांजिस्टर के आविष्कार ने इसे सभी के लिए एक ज़रूरत बना दिया।

रेडियो के आगमन के साथ, उर्दू मीडिया का दायरा बहुत व्यापक हो गया। यह उन लोगों की पहुंच में भी आया जो विशिष्ट कारणों से उर्दू अखबारों और पत्रिकाओं से संबंध नहीं रखते थे। ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सेवा और कुछ राज्यों के उर्दू कार्यक्रमों ने उर्दू मीडिया को एक नया आयाम देने में बहुत अच्छा काम किया है। सूचना के प्रसारण में तेजी के कारण, प्रिंट मीडिया को शुरुआती दिनों में इस खतरे का सामना करना पड़ा कि समाचार पत्र और पत्रिकाएं अपना अर्थ खो देंगी।

लेकिन ये आशंकाएँ निराधार साबित हुईं। न केवल अखबारों और पत्रिकाओं का अर्थ बरकरार रहा, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बिजली जैसी रफ्तार ने प्रिंट मीडिया में भी नई जान फूंक दी। आज रेडियो अपने विकास की ऊंचाइयों पर पहुंचने के बाद शहरों में लगभग पराया हो गया है। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह अभी भी कुछ आकर्षण है। हालाँकि, टेलीविजन, जिसे सार्वजनिक जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा माना जाता था। हाल के वर्षों में, यह झूठ फैलाने और सरकार की कमियों को छिपाने का एक साधन बन गया है। इसकी जगह सोशल मीडिया ने ले ली है।

जहां तक ​​उर्दू को समर्पित टेलीविजन चैनलों का सवाल है, तो उनकी स्थिति बहुत अलग नहीं है। ईटीवी न्यूज 18 खत्म हो गया है। डीडी उर्दू और ज़ी सलाम की गुणवत्ता इतनी गिर गई है कि लोग इसे देखना पसंद नहीं करते हैं। क्योंकि वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समाज की समस्याओं को उजागर करने के बजाय सत्ता पक्ष के हितों को प्राथमिकता दे रहा है।

अतीत में, जन आंदोलनों को स्थापित करने में मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसीलिए लोकतंत्र में मीडिया को विधायिका, न्यायपालिका और प्रशासन के बाद चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने के लिए पत्रकार सरकार से तीखे सवाल पूछता है। लेकिन इसकी जड़ में मसलों का हल, जनता और सरकार के बीच संतुलन पैदा करना होता है।

पत्रकारिता की ताक़त

मीडिया अपने आप में स्वतंत्र होने के कारण अपनी जिम्मेदारी खुद तय करता है। वह समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने आत्मविश्वास को बनाए रखता है। यही पत्रकारिता की ताकत है और इसी को पत्रकारिता कहते हैं। लोकतंत्र पर बना समाज ही एक अच्छे मीडिया का निर्माण करता है। हमें अपने अंदर झांक कर देखना होगा कि क्या हमारी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति बेहतर मीडिया के लिए अनुकूल है, यदि नहीं तो हमें लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने के लिए और ज़्यादा काम करना होगा।

डॉ मुजफ्फर हुसैन गजाली
डॉ. मुज़फ़्फ़र हुसैन ग़ज़ाली-वरिष्ठ पत्रकार

पहले पत्रकारिता देश और समाज की सेवा का माध्यम थी। उसकी पहुंच आम आदमी तक थी। पत्रकारिता ने देश के पुनर्निर्माण में सकारात्मक और सार्थक भूमिका निभाई है। लेकिन इस समय कुछ नया बनाने और सनसनी पैदा करने के नाम पर कई बार पत्रकारिता के मूल्यों, नियमों और विनियमों और समाज के प्रति इसकी जिम्मेदारी को दरकिनार कर दिया जाता है। टीआरपी बढ़ाने की होड़, शासकों से मेल-मिलाप और पत्रकारिता की बाढ़ में एकतरफा समाचार और रिपोर्टिंग से हल की फ़िक्र कहीं छूट जाती है। इसी से पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए मुश्किल कड़ी होती है।

भारत इस समय उसी दौर से गुजर रहा है। मीडिया दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक तरफ तो सरकार से सवाल करने वाले पत्रकार हैं तो दूसरी तरफ जो उसके हितों के लिए काम करने वाले। इस सूरतेहाल ने भारत को पत्रकारों के लिए एक खतरनाक जगह बना दिया है।

2021 में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने 180 देशों का प्रेस फ्रीडम इंडेक्स तैयार किया है। इसमें भारत 142वें स्थान पर है। 2013 में भारत की रैंकिंग 111 थी। ऐसी रैंकिंग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से अपनी जिम्मेदारी निभाने नहीं दी जा रही है। उन्हें विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसमें उनके खिलाफ राजनीतिक दबाव, धमकी और हिंसा शामिल है। इस हिंसा में पुलिस और प्रशासन की संलिप्तता की कीमत पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है। 2020 में ड्यूटी के दौरान चार पत्रकारों की जान चली गई। पत्रकारों को प्रताड़ित करने की खबरें तो आये दिन देखने को मिलती हैं। इससे देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं है।

फूंकों से यह चराग़ बुझाया न जाएगा

इन सबके बावजूद भी हर तरफ से निराश लोग अब भी उम्मीद की नजर से मीडिया की तरफ देखते हैं। इसका मतलब है कि मीडिया और लोकतंत्र दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए लोकतंत्र के दुश्मन मीडिया का गला घोंटने के लिए नए-नए कदम उठाते रहते हैं। मीडिया खासकर उर्दू पत्रकारिता ने बार-बार यह साबित कर दिया है कि फूंकों से यह चराग़ बुझाया न जाएगा।

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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