शिया-सुन्नी और हिन्दू-मुस्लिम एकता के सूत्रधार थे मौलाना कल्बे सादिक़ साहब

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अक्सर सुनने को मिलता है कि एक आलिम की मौत एक आलिम की मौत होती है लेकिन यह बात तब समझ आती है जब मौलाना कल्बे सादिक़ साहब जैसा आलिमेदीन दुनिया को छोड़कर जाता है।

मौलाना कल्बे सादिक़ साहब ने अपनी 83 साल की उम्र में शिया-सुन्नी इत्तेहाद पर काफी प्रोग्राम किए और बहुत सी किताबें लिखीं। मौलाना कल्बे सादिक़ साहब का मानना था कि ना शिया, सुन्नी का दुश्मन है ना सुन्नी, शिया का दुश्मन। अगर कोई एक दूसरे का दुश्मन है तो वह दोनों फरीक़ में फैली हुई जहालत है। जिस दिन यह जहालत खत्म हो जाएगी उस दिन यह दुश्मनी मोहब्बत में तब्दील हो जाएगी।

यह इत्तेहादे मुस्लेमीन का जज़्बा मौलाना के दिल में इसलिए भी था कि मरहूम आलमी सतह पर शिया धर्मगुरु आयतुल्लाह सैय्यद अल हुसैनी अल सिस्तानी, इराक के अनुयाई थे जो खुद शिया सुन्नी इत्तेहाद के अलंबरदार कहे जाते हैं।

    कल्बे सादिक़ साहब हजरत अली अलैहिस्सलाम की नस्ल में 36वीं पीढ़ी के वंशज हैं जिनका शिजरा शिया समुदाय के नवें इमाम अली नक़ी(अ.स) से मंसूब है। मौलाना कल्बे सादिक, मौलाना कल्बे आबिद मरहूम के छोटे भाई थे और कल्बे आबिद साहब और कल्बे जव्वाद साहब के वालिद थे।

    धर्मगुरु के रूप में दुनिया भर में एक अलग पहचान

    अक्सर यह बात कही जाती है कि कल्बे जव्वाद साहब शिया समुदाय तक ही महदूद हैं लेकिन मौलाना कल्बे सादिक साहब शिया-सुन्नी दोनों समुदायों में बहुत मकबूल थे।

    उन्होंने अदब की दुनिया में, समाज सेवा में बहुत से काम किए जिसमें 1984 में उनके जरिए कायम किया गया तोहिद उल मुस्लिमीन ट्रस्ट आज भी गरीब बच्चों की तालीम का पूरा खर्च उठाता है और उन बच्चों को स्कॉलरशिप भी देता है। इसके अलावा उन्होंने दर्जनों यतीम खाने, तालीम इंस्टिट्यूट और हॉस्पिटल्स बनवाए जहां पर मुस्लिम गरीब बच्चों को मुफ्त या बहुत कम खर्च पर बेहतरीन तालीम दी जाती है।

    इन सभी खिदमात के अलावा वह एक सादा दिल इंसान थे और वक्त की पाबंदी तो कोई उनसे सीखे। शायद ही कोई कार्यक्रम या मजलिस हो जिसमें वह दिए गए वक्त पर ना पहुंचे हों या दिए गए वक्त पर अपनी तकरीर पूरी ना की हो।

    हिंदू मुस्लिम एकता के भी प्रतीक थे मौलाना

    kazim
    Syed Mohd Kazim

     मौलाना का मानना था कि अच्छी बात जहां से भी मिले ले लेनी चाहिए, भले ही वह इंसान आपके धर्म का हो या ना हो। वह शिया सुन्नी ही नहीं बल्कि हिंदू मुस्लिम एकता के भी प्रतीक थे। अक्सर सर्वधर्म सभाओं में बोलते थे और सब को मुतास्सिर करते थे।

    इसीलिए कहा जाता है कि जब कोई ऐसा आलिमेदीन इंतकाल कर जाता है तो गोया कि पूरी दुनिया मर जाती है क्योंकि दुनिया अच्छे लोगों की वजह से ही जिंदा है।

    किसी शायर का यह शेर ऐसे ही महान लोगों पर फिट होता है कि –

    हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

    नोट- लेखक सैयद मोहम्मद काज़िम जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के सीनियर सेकंडरी में टीचर हैं।

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