नफ़रत भरी टीवी चर्चाओं में भाग लेने का क्या मतलब?

Date:

क्या तथाकथित ‘मुस्लिम विशेषज्ञ’ बता सकते हैं कि एक विशेष एजेंडे के तहत होने वाली टीवी चैनलों पर बहस का परिणाम क्या निकलता है?

देश में पत्रकारिता के स्तर और उसकी साख को लेकर पहले ही सवाल उठते रहे हैं, अब न्यूज चैनलों पर होने वाली डिबेट समाज और पत्रकारिता पर एक बदनुमा दाग़ बन गई है। यह चैनल आग में ईंधन डालने का काम रहे हैं। आम आदमी को जागरूक करने के बजाय, ये चर्चाएं उनके अंदर नफरत और ज़हर भरने का काम कर रही हैं।सार्थक बहस के इतर शोर शराबा, हंगामा, एक दूसरे पर कीचड़ उछालना अब आम बात हो गई है।

इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली और परेशान करने वाली बात यह है कि ये टीवी डिबेट अब धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का एक आसान ज़रिया बन गई हैं। पार्टी के प्रवक्ताओं और राजनेताओं के बीच वाद-विवाद और टकराव समझ में आता है, लेकिन तथाकथित ‘विशेषज्ञों’ जो धर्म की आड़ में इस्लाम और मुसलमानों के मुद्दों पर चर्चा करते हैं, उन्होंने डिबेट को सांप्रदायिक रंग दे दिया है। धार्मिक मुद्दों को सड़क छाप चर्चा में बदल दिया है। साथ ही, वे एक विशेष एजेंडे के तहत काम करने वाले चैनलों और उनके एंकरों का हथियार बन गए हैं। और यह देश और राष्ट्र के लिए सबसे ख़तरनाक बात यह है कि अधिकांश समाचार चैनल सोची समझी रणनीति के तहत सांप्रदायिक ताकतों की आवाज़ बन गए हैं और उनके ‘प्रचारक’ मालूम पड़ते हैं।

क्या इन ‘मुस्लिम विशेषज्ञों’ को इन टीवी डिबेट्स में शामिल होना चाहिए?

हाल ही में इन टीवी डिबेट्स के दौरान कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन्होंने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। अब बहस यह शुरू हो गई है कि क्या ये डिबेट्स सभ्य समाज के लिए फायदेमंद हैं? क्या यह समाज को कुछ लाभ पहुंचा रहे हैं? क्या ये टीवी डिबेट आम नागरिकों के हक़ में कुछ अच्छा कर रहे हैं? क्या इनसे बुनियादी और ज़रूरी मुद्दों के बारे में आम नागरिकों में कोई जागरूकता आ रही है? सबसे बढ़कर, देश और राष्ट्र को इन चर्चाओं से क्या हासिल हुआ है, खासकर धार्मिक मामलों पर? क्या ये बहसें मुसलमानों का सम्मान बड़ा रही हैं या अपमान कर रही हैं? क्या धार्मिक मुद्दों पर इन बहसों में शामिल पैनलिस्ट अपनी बात मज़बूती के साथ रखने में सफल हो रहे हैं? क्या इन ‘मुस्लिम विशेषज्ञों’ को इन टीवी डिबेट्स में शामिल होना चाहिए? और इन तथाकथित विशेषज्ञों को टीवी पर चर्चा के लिए किसने नियुक्त किया है? क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह तथाकथित मुस्लिम बुद्धिजीवि और विशेषज्ञ सांप्रदायिक ताक़तों और उनके मददगार चैनलों और एंकरों के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।

दरअसल ये चर्चाएं हंगामे, शोर-शराबे, तू-तू में-में, गाली-गलौज और टीआरपी के खेल से आगे निकल चुकी हैं। वाद-विवाद के स्तर की अब क्या बात की जाए, एक-दूसरे को गाली गलौच और अपमान के बाद अब बात धर्म और पवित्र धार्मिक हस्तियों के अपमान तक पहुंच गई है।

यह शायद चरम सीमा है कि टीवी चर्चाओं में धार्मिक हस्तियों पर कीचढ़ उछाली जा रही है। इन सबके लिए चैनल और उनके एंकर जितने ज़िम्मेदार हैं, इससे कहीं ज्यादा वह तथाकथित ‘मुस्लिम विशेषज्ञ’ क़ुसूरवार हैं जो अपने चेहरे चमकाने, सस्ती शोहरत और दौलत हासिल करने के लिए इन टीवी डिबेट्स में शामिल होते हैं। क्या वह यह बता सकते हैं कि टीवी चर्चाओं और मुस्लिम मुद्दों पर चर्चा से देश और मुसलमानों को कितना फायदा हुआ? क्या वह अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं कि वह इस्लाम और मुसलमानों की बात को बेहतर तरीक़े से रखने में सफल रहे हैं? क्या उन्हें तर्कों और मज़बूती के साथ अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया गया?

ऐसा नहीं है कि इन बहसों में शामिल सभी ‘मुस्लिम विशेषज्ञ’ सस्ती शोहरत और कुछ पैसों के लिए टीवी की चर्चाओं में शामिल होते हैं। उनमें से कई लोग हैं जिनसे मैं ख़ुद अच्छी तरह परिचित हूं और निश्चित रूप से वह ईमानदारी के साथ अपनी बात रखने जाते हैं।

मैंने बहुत पहले न्यूज चैनल्स की डिबेट्स देखना और उनमें भाग लेना छोड़ दिया था, परंतु किसी ने बताया कि अब ऐसे लोग भी टोपी और कुर्ता पहन कर इन चर्चाओं में ‘मुस्लिम विद्वान’ के रूप में शामिल होते हैं, जिनकी मुस्लिम ईशूज़ पर कोई स्टडी नहीं है।

दरअस्ल दर्जनों चैनलों को दर्जनों ‘मुस्लिम विशेषज्ञों’ की ज़रूरत होती है। ऐसे में इन चैनलों को अपना एजेंडा निर्धारित करने में जो भी मददगार और उपयुक्त लगता है, उसे बुला लेते हैं। जब इन चर्चाओं का यह स्तर हो, तो इसमें सभ्य और समझदार लोगों के जाने का क्या मतलब है। मुझे लगता है कि उन्हें न केवल चैनलों का बहिष्कार करना चाहिए, बल्कि उन्हें अपना विरोध दर्ज कराकर फिलहाल बहस में शामिल होने से दूर हो जाना चाहिए।

टीवी डिबेट्स का मुख्य उद्देश्य इस्लाम और मुसलमानों का अपमान करना

इसमें कोई शक नहीं कि इन टीवी डिबेट्स का मुख्य उद्देश्य इस्लाम और मुसलमानों का अपमान करना है। अब खुलेआम या तो एंकर या गाली गलौच के लिए बुलाए गए अन्य पैनलिस्ट इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करते हैं और जब कोई मुसलमान इसका जवाब देना चाहता है तो बहस सांप्रदायिक रुख़ इख़त्यार कर लेती है। पत्रकारिता के सभी नैतिक सिद्धांतों, मूल्यों और परंपराओं को उठा कर रख दिया जाता है। जब सोशल मीडिया पर या समाज में इन तथाकथित ‘मुस्लिम विशेषज्ञों’ के खिलाफ कोई अभियान चलाया जाता है, तो तर्क दिया जाता है कि अगर हम नहीं जाएंगे तो हमारी बात दूसरों तक नहीं पहुंचेगी। यह वास्तव में अपनी बात को सही साबित करने की एक युक्ति है। जैसा कि मैंने पहले कहा, क्या वे बता सकते हैं कि वे जिन चर्चाओं में शामिल हुए, वे वास्तव में सार्थक और उद्देश्यपूर्ण थीं और क्या उन्हें ईमानदारी के साथ बोलने और अपनी बात रखने का अवसर दिया गया? सच तो यह है कि ये टीवी डिबेट्स मुसलमानों के हक़ में क़तई नहीं हैं। इन लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि चैनलों के स्टूडियो मुसलमानों की बात पेश करने के लिए नहीं सजाए जाते हैं, बल्कि उनकी बेइज्ज़ती और अपमान का मंच तैयार किया जाता है।

मुस्लिम पैनलिस्टों को एक साथ इन बहसों का बहिष्कार करना चाहिए

बहरहाल, इन मुस्लिम पैनलिस्टों को एक साथ कुछ समय के लिए इन बहसों का बहिष्कार करना चाहिए और किसी भी चैनल पर इस्लाम और मुसलमानों के बारे में होने वाले किसी भी संवाद में शामिल होने से इनकार कर देना चाहिए, फिर आप देखेंगे कि इन चैनलों और एंकरों द्वारा सजाई गई नफ़रत और सांप्रदायिकता की दुकानें बंद हो जाएंगी। वे आम दर्शकों तक अपना एजेंडा पहुंचाने में भी नाकाम हे जाएंगे।

डॉ यामीन अंसारी
डॉ यामीन अंसारी – लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार

टीवी डिबेट्स में भाग लेने वाले मुस्लिम पैनलिस्ट अगर वाक़ई अपनी बात ईमानदारी के साथ जनता के सामने रखना चाहते हैं तो सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा चलाए जा रहे यूट्यूब चैनलों का सहारा ले सकते हैं। जहां वे उर्दू के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी अपनी बात रख सकते हैं।

आजकल उनकी पहुंच न्यूज चैनलों से कम नहीं है, लेकिन कुछ लोग चंद रुपयों और सस्ती प्रसिद्धि के लिए चैनलों और फिरक़ापरस्त न्यूज एंकरों के नफरत भरे अभियान का हिस्सा बन जाते हैं। क्योंकि इन चैनलों का मक़सद मुस्लिम पैनलिस्ट को भड़काना और अन्य पैनलिस्टों के द्वारा इस्लाम और मुक़द्दस हस्तियों के खिलाफ टिप्पणी करके आम मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना होता है। यही है सांप्रदायिक शक्तियों और कट्टरपंथियों का असली एजेंडा भी है।

अक्सर देखा गया है कि दोनों ही संप्रदायों के पैनलिस्टों को धार्मिक मामलों की बहुत कम जानकारी होती है, लेकिन चर्चा के दौरान बात कहीं से कहीं पहुंच जाती है। इसलिए, ज़रूरत इस बात की है कि यह मुस्लिम पैनलिस्ट इन बहसों का पूरी तरह से बहिष्कार कर दें या अगर फिर भी जाना चाहते हैं, तो कम से कम अपनी बात पूरी तत्परता, तैयारी और दृढ़ता के साथ रखें।

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि ग्लोबलटुडे इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है )

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Share post:

Visual Stories

Popular

More like this
Related

Winter Vaccation Anounced In J&K Degree Colleges

Srinagar, December 20: The Jammu and Kashmir Government on...

National Urdu Council’s Initiative Connects Writers and Readers at Pune Book Festival

Urdu Authors Share Creative Journeys at Fergusson College Event Pune/Delhi:...

एएमयू में सर सैयद अहमद खान: द मसीहा की विशेष स्क्रीनिंग आयोजित

सिरीज़ के लेखक मुतईम कमाली की सभी दर्शकों ने...
Open chat
आप भी हमें अपने आर्टिकल या ख़बरें भेज सकते हैं। अगर आप globaltoday.in पर विज्ञापन देना चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क करें.