कहते हैं जब पाप का घड़ा भर जाता है तो फूटना तय ही होता है। यही उसकी नियति है। इतिहास गवाह है कि हर तानाशाह जो कभी अजेय नजर आता है उसका अंत दर्दनाक ही होता है। इसे फासीवादी ताकतों मसलन हिटलर और मुसोलिनी के अंत से भी समझा जा सकता है।
आज अर्नब गोस्वामी के रिपब्लिक भारत और उसके नकलची बंदर टाइम्स नाउ के साथ कई अन्य चैनल भी किसी पागल तानाशाह की तरह व्यवहार कर रहे हैं। इन्होंने इतना गंध फैला दिया है, ऐसी अति कर दी है कि फिल्म निर्माताओं को उनके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा है।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इससे शर्मानक किस्सा दूसरा नहीं हो सकता जब दो न्यूज चैनलों के खिलाफ उसके दर्शक समूहों और वो भी उनके चहेते फिल्म इंडस्ट्री को उऩकी छीछोरी हरकतों, ओछेपन के लिए कोर्ट की शरण में जाना पड़ा हो। जो इनके पाप के घड़े के फूटने का सही वक्त आने की तस्दीक कर रहे हैं।
क्योंकि ये चैनल सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के मामले में सस्ती लोकप्रियता या कह लीजिए टीआरपी(TRP) बटोरने के लिए ना केवल फिल्म इंडस्ट्री के सदस्यों का मीडिया ट्राइल कर रहे हैं बल्कि उऩके बारे में गैर जिम्मेदाराना और अपमानजनक टिप्पणी कर उन्हें बेवजह बदनाम कर रहे हैं। बॉलीवुड को गंदगी, गटर और उसके सितारों को दोगला, माफिया, नशेड़ी और पता नहीं पागलों की तरह क्या-क्या बके जा रहे हैं। ये लोग संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल इस हद तक कर रहे हैं ताकि बॉवीवुड के बहाने देश में सांप्रदायिकता फैल सके और समाज का तानाबाना एक बार फिर से बिखरता दिखाई दे। जिसका लाभ बिहार के चुनावों में सत्ताधारी दल उठा सके। अर्नब गोस्वामी (Arnab Goswami), राहुल शिवशंकर(Rahul Shivshankar), नविका कुमार (Navika Kumar) और प्रदीप भंडारी(Pradeep Bhandari) के खिलाफ फिल्म इंडस्ट्री की नामचीन हस्तियों का दिल्ली हाईकोर्ट की शरण में जाकर मीडिया ट्रायल रोकने की गुहार लगाना इसी की तस्दीक करता है। क्योंकि इन राष्ट्रवादी चैनलों के साथ पूरा सत्ता प्रतिष्ठान खड़ा है जो इन्हें ना केवल एक राष्ट्रविरोधी, संविधान विरोधी, कानून विरोधी और लोकतंत्र विरोधी कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, बल्कि इसके लिए उनकी हौसला-अफजाई भी करता है।
अर्नब गोस्वामी(Arnab Goswami) नाम का ये चिकना राष्ट्रवादी लौंडा अपने चैनल पर न्यूज नहीं दिखाता है बल्कि न्यूज के नाम पर घटिया धारावाहिक फिल्मी मसाला परोसने का काम कर रहा है।
इस मेलोड्रामा में हर रोज एक-दो नए किरदार जोड़ लेता है और उनके बारे में नई उत्सुकता जगाता रहता है। चिल्ला-चिल्ला कर अपने प्रतिस्पर्धियों को ललकारता रहता है और बाकी के सभी न्यूज चैनल उसकी थाप पर कथक और भरतनाट्यम करते नजर आते हैं। इनमें सबसे बुरा हाल उऩ चैनलों का है जो बीते दो दशकों से बादशाह बने बैठे थे। लेकिन आज न्यूज को लेकर उन्होंने लोच और लचक (इलास्टिसिटी और प्लास्टिसिटी) दोनों खो दी है। वो अर्नब नाम के भूत का बस पीछा करते नजर आ रहे हैं। और अर्नब बीच बाजार नंगा खड़ा होकर उन्हें ललकार रहा है। मानो कह रहा हो- ‘है नंगा होने की क़ुव्वत तो आ जाओ मैदान में। ‘ यही सब कर वो टीआरपी के मामले में बीते दो महीने से टीवी न्यूज इंडस्ट्री का बादशाह बना बैठा है और बाकी न्यूज चैनल या तो उसके पिछलग्गू बने बैठे हैं या उसकी धुन पर कदमताल करते नजर आ रहे हैं।
आप अर्नब की भाषा का संस्कार देख लीजिए। वो शोले के गब्बर सिंह की तरह बोलता है। टीवी स्क्रीन पर किसी मजे हुए एक्टर की तरह नाटक-नौटंकी करता है। कभी जोर से बोलता है तो कभी चिल्लाने लगता है। विपक्ष के नेताओं के लिए जिस अपमानजनक भाषा का वो इस्तेमाल करता है अगर ये कथित तानाशाही का दौर ना होता तो शायद कब का सलाखों के पीछे नजर आता। वो सोनिया गांधी को हमेशा एन्टोनिया माइनो, कांग्रेस पार्टी को वाड्रा की सेना के नाम से ललकारता है। वो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का नाम हिकारत से ही लेता है जिसमें उसकी घृणा झलकती रहती है। वो सरेआम रिपब्लिक भारत को एक राष्ट्रवादी चैनल करार देता है मानो बाकी न्यूज चैनल राष्ट्रद्रोही या कह लीजिए देशद्रोही हों।
अर्नब गोस्वामी के श्रीमुख से विपक्ष के लिए निकलने वाले ये शब्द दरअसल उसकी आर्थिक मजबूरी और पैदाइशी-परवरिश की गड़बड़ी का नतीजा ही मालूम पड़ती है। जिसमें जाति और संप्रदाय विशेष को लेकर अपमान का भाव रखना उसके खून में समाहित लगता है। इसका नजारा हमें सबसे पहले तब्लीगी जमात के लोगों को कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराकर उसने दिया। और ताजा घटनाक्रमों में हाथरस की दलित बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी एंकरिंग और उसके तमाम संवाददाताओं की रिपोर्टिंग में नजर आया। रिपब्लिक भारत ये साबित करने में आज भी लगा है कि दलित की बोटी के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं है और उसकी हत्या उसके घर वालो ने ही की है। पत्रकारिता के नाम पर ऐसा घटियापन और ऐसी बेशर्मी का कोई किस्सा मुझे अपने तीस साल के पत्रकारिता के करियर में याद नहीं आता।
सबसे हैरानी की बात ये है कि जब दो-तीन दिनों तक जब अर्नब गोस्वामी के रिपब्लिक भारत से टीआरपी में बुरी तरह पिटे तमाम बड़े हिंदी चैनल हाथरस की दलित बेटी को न्याय दिलाने के लिए या कह लीजिए टीआरपी बटोरने के लिए पीपली लाइव की तर्ज पर हाथरस के गांव में डेरा डाला तो अर्नब ने अपने राष्ट्रवादी आकाओं की सुनी। जिन्हें सवर्णों के खिलाफ मीडिया का होना रास नहीं आया। क्योंकि इसमें पहले संघ फिर मोदी और योगी की छवि को बड़ा धक्का लग रहा है। खास रणनीति बनाई गई कि इस कहानी को ही पलट दिया जाए। और फिर जो हुआ कि अर्नब के साथ-साथ पूरा मीडिया बेशर्मी के साथ ये कहानी बनाने में जुट गया कि बलात्कार की पुष्टि ही नहीं हुई।
लड़की पहले से सवर्णों के लौंडों को फोन करती थी। मानो दो दिन दलितों के साथ खड़ा होने का जो पाप सबसे तेज हिंदी के चैनलों ने किया उसका प्रायश्चित कर रहा हो। अपने पाप धो रहा हो। मान लीजिए लड़की आरोपी सवर्ण लौंडें के साथ इश्क ही करती थी, उसे फोन करती थी, उससे घड़ी-घड़ी मिलने जाती थी, तो क्या इससे किसी को उसके रेप का अधिकार मिल जाता है। उसे मारने-पीटने का अधिकार मिल जाता है। किसी परिवार से उसकी बेटी के अंतिम संस्कार का हक छीना जा सकता है। आधी रात में परिवार को शव का चेहरा दिखाए बगैर परिवार की मर्जी के खिलाफ पुलिसिया खौफ के बीच केरोसिन तेल डालकर उसे जबरन जलाया जा सकता है। मोदीजी का ये कौन सा ‘बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा है जिसमें गैंगरेप और मारपीट की शिकार दम तोड़ती एक दलित बेटी के मरने से पहले दिए गए बयान पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं। आज उसे झूठा साबित करने की कोशिश की जा रही है। और अर्नब गोस्वामी और उसके नकलची बंदरों की टोली भी, जो आज गोदी मीडिया के भड़ुआ राष्ट्रवादी पत्रकार कहलाते हैं, इस काम में बेहायगी के साथ जुटे नजर आ रहे हैं।
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