हज इस्लाम के पांच स्तंभों की श्रंखला में चौथा महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह हिजरी कैलेंडर के आखिरी महीने ज़िल्हिज्जा के पहले अशरे में अदा किया जाता है।
हज एक ऐसी इबादत है जिसमें इस्लाम की तमाम इबादतें शामिल हो जाती हैं। इसको अदा करने के लिए मोमिन को सबसे पहले अपने माल की क़ुरबानी देनी पड़ती है जिससे माली इबादत का अज्र मिलता है। दूसरे हज के अरकान अदा करने, सफर की मुश्किलें और दुशवारियाँ बर्दाश्त करने से जिस्मानी इबादत भी शामिल हो जाती है। इस दौरान बन्दा नमाज़ों की अदायगी में भी कोई कोताही नहीं करता लिहाज़ा अहमतरीन इबादत नमाज़ का भी हक़ अदा हो जाता है।
इस महीने के पहले अशरे में नफिल रोज़े रखना बहुत अफ़ज़ल माना गया है इस तरह रोज़े जैसी अहम इबादत भी शामिल हो जाती है।
इन दस दिनों में किए गए नेक आमाल अल्लाह ताअला को बहुत महबूब हैं।
पहली ज़िल्हिज्जा से तेराह ज़िल्हिज्जा तक यह तक्बीरात पढ़ना वाजिब हैं। अल्लाह-हो-अक्बर-अल्लाह-हो-अक्बर-ला-इलाहा-इल्लल्ला-हो-वल्ला-हो-अक्बर-व-लिल्लाहिल-हम्द।
हज पर न जाने वाले मोमिनीन भी सुबह-शाम बुलंद आवाज़ में पढ़कर अपने रब की हम्दो सना बयान करते हुए जज़्ब – ए तौहीद से लबरेज़ (ओत-प्रोत) होकर उसका क़ुर्ब हासिल करने की कोशिश करते हैं। जिससे, उनके अंदर रूहानियत पैदा होती है।
अरफ़े का रोज़ा
इसके अलावा इस महीने की पहली नौ तारीख तक नफ़ली रोज़े रखना सुन्नत हैं। अगर पूरे नौ न रख सकें तो नौ तारीख यानि अरफ़े का रोज़ा रखकर हाजियों के बराबर सवाब पा सकते हैं। ग़ौर तलब है अरफ़े का रोज़ा हज कर रहे लोगों को नहीं रखना है। ग़ैर हाजियों को भी इस हुरमत वाले महीनें में तमाम बुरे कामों से बचना चाहिए।
क़ुरबानी का हुक्म
दस ज़िल्हिज्जा को क़ुरबानी का हुक्म सुन्नते इब्राहिमी की अदायगी का बेहतरीन ज़रिया है। हज जैसी अहम इबादत अल्लाह ताअला ने अपने बुजुर्गीदा नबी हज़रत इब्राहिम अलैहि सल्लाम से मोमिनीन की निस्बत जोड़े रखने के लिए फ़र्ज़ की।
काबे की तामीर
इस्लाम क्योंकि दीने हक़ है। आदम अलैहि सल्लाम से लेकर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक तमाम अम्बिया अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिए ही दुनिया में आए। अल्लाह ताअला ने काबे की तामीर का हुक्म देकर उन्हें अफ़ज़ल तरीन अम्बिया में शुमार किया और रहती दुनिया तक मोमिनीन को काबे का तवाफ़ करने का हुक्म देकर काबतुल्लाह को सारी दुनिया के मुसलमानों के लिए सैंटर प्वाइंट बना दिया। जहाँ हज की शक्ल में दुनिया का सबसे बड़ा आलमी इज्तेमा मुनाक़िद होता है।
आलमी भाईचारे का बेहतरीन नमूना
लब्बैक- अल्लाह- हुम्मा-लब्बैक (हाज़िर हूँ ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ ) की सदाएं अल्लाह की वहदानियत को बयान करती हैं। हर इन्सान अपनी बड़ाई भूल कर अपने रब के सामने सरेंडर कर देता है। बादशाह हो या फ़क़ीर एक ही अंदाज़ में सज्दा रेज़ होते हैं और अपने गुनाहों की मांगते हैं। आलमी भाईचारे का इससे बेहतरीन नमूना हमें कहीं और देखने को नहीं मिलता।
इसी मौक़े पर आखिरी नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोमिनीन को खिताब करते हुए कहते हैं ऐ लोगों आज लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल हो गया। इस खुत्बे को हज्जतुल विदा के नाम से जाना जाता है।
लेखिका: नय्यर हसीन,स्वामी विहार,हल्द्वानी, नैनीताल
- Mentally Deranged Person Behind Desecrating Of Shrine, Mosque In Dadsara Tral
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