‘रोज़ा सब्र, बर्दाश्त, क़ुर्बानी, हमदर्दी और आपसी मुहब्बत की सिफ़ात को परवान चढ़ाता है’-कलीमुल हफ़ीज़

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इस मुबारक महीने का इस्तक़बाल कीजिए और इस से भरपूर फ़ायदा उठाइये

रमज़ान का मुबारक महीना शुरु होने वाला है। इस महीने की फ़ज़ीलतें क़ुरआन और हदीसों में बेशुमार हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी फ़ज़ीलत ये है कि इस महीने में क़ुरआने-पाक नाज़िल हुआ। यह महीना हमें रूहानी और अख़लाकी बुलंदी पर पहुँचाने के लिये है। इस महीने में हमदर्दी और मुहब्बत के जज़बात और अहसासात पैदा होते हैं। ये महीना हमें एक बड़े मक़सद के लिए तैयार करता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि यह पवित्र महीना हर साल आता है और चला जाता है। हमारी ज़िन्दगी में कोई बदलाव नहीं आता। हमारी अख़लाक़ी हालत में और ज़्यादा गिरावट आ जाती है। हमारा समाजी और सियासी पिछड़ापन और बढ़ जाता है।

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है …

भूख-प्यास की शिद्दत हमें इन्सानों से मुहब्बत करना सिखाती है। हमारे अंदर हमदर्दी और ग़रीबों से मुहब्बत का एहसास पैदा होता है। यही एहसास हमें उनकी मदद करने पर उभारता है। भारत-पाक के मुसलमान अपनी ज़कात भी इसी महीने में निकालते हैं, इस तरह पूरा मुस्लिम समाज हमदर्दी और सहयोग की फ़िज़ा में डूब जाता है। लेकिन मैं देखता हूँ कि इसके बावजूद मुसलमानों की ग़ुरबत में बढ़ोतरी ही होती चली जा रही है। हमदर्दी और ग़म-ख़ारी का अहसास रमज़ान ख़त्म होते ही हवा हो जाता है, क्योंकि वही हाथ जो रमज़ान में किसी की मदद के लिये बढ़ते हैं, रमज़ान के बाद वही किसी को मारने और जान लेने के लिये भी उठते हैं।

ज़कात से मिल्लत की आर्थिक व्यवस्था मज़बूत रहे

ग़रीबी बढ़ने की सबसे बड़ी वजह ज़कात का अनियोजित तरीक़े से बाँटना है। हज़ारों-करोड़ की ज़कात ख़र्च होने के बाद भी आर्थिक व्यवस्था में कोई तबदीली दिखाई नहीं देती। इसलिये ज़रूरी है कि जो लोग ज़कात देने वाले हैं वो इसका ख़याल रखें कि उनकी ज़कात से मिल्लत की आर्थिक व्यवस्था मज़बूत रहे। लेने वाला कोई एक हाथ ही सही, देने वाला बन जाए। जो पेशे से ही फ़क़ीर हैं उनसे बचने की ज़रूरत है, उनकी बड़ी तादाद है। इस मौक़े पर ग़ैर-मुस्लिम भी बड़ी तादाद में मुसलमानों के लिबास में आने लगे हैं। बेहतर होगा कि एक मौहल्ले या एक बस्ती के लोग अपनी बस्ती की प्लानिंग कर लें और उसके बाद उनकी ज़रूरत के मुताबिक़ मदद करें।

क़ुरआन का पैग़ाम

ये महीना क़ुरआन के पैग़ाम को आम करने का बेहतरीन महीना है। आज भारत में इस्लाम और मुसलमानों के साथ साम्प्रदायिक ताक़तों का जो रवैया है उसकी बड़ी वजह ये है कि उन तक क़ुरआन का पैग़ाम नहीं पहुँचा। वो हमारे अमल को देख कर समझते हैं कि यही क़ुरआन है। काश हमारा अमल क़ुरआन का आइना होता। लेकिन जब तक हम अपने अमल की इस्लाह करें उस वक़्त तक के लिये ज़रूरी है कि अपने ग़ैर-मुस्लिम भाइयों को क़ुरआन का तर्जमा उनकी ज़बान में पहुँचाएँ। उनको नमाज़ के बारे में बताएँ। उनको इफ़्तार और ईद पर अपने घर दावत दें।

रमज़ान इसलिये नहीं है कि आप ख़ूब खाएँ बल्कि ये तो आपको कम खाने की ट्रेनिंग देने आया है

ये महीना मेडिकल नज़रिये से भी बहुत अहम है। रोज़ा हमारी जिस्मानी बीमारियों के लिए भी लाभदायक है। ये कैंसर के ख़तरे को कम करता है। कोलेस्ट्रॉल कम किया जा सकता है, ब्लड प्रेशर और शुगर क़ाबू में लाया जा सकता है, मगर ये उसी वक़्त मुमकिन है जब हम ज़बान के चटख़ारे पर क़ाबू रखें। अगर हमारा हाल यही रहा जो इस वक़्त है तो शरीर से रोग घटने के बजाए बढ़ जाएंगे। हमारे इफ़्तार के दस्तरख़ान की ज़्यादा तर ग़िज़ाएँ जिस्म को नुक़सान पहुँचाने वाली होती हैं। घर की औरतों के वक़्त का एक बड़ा हिस्सा पकवान बनाने में गुज़र जाता है। रमज़ान इसलिये नहीं है कि आप ख़ूब खाएँ बल्कि ये तो आपको कम खाने की ट्रेनिंग देने आया है। जिस तरह एक फ़ौजी को ड्रिल कराई जाती है, दौड़ाया जाता है और भूखा रखा जाता है ताकि जंग के दौरान भूखा रह कर भी दुश्मनों का मुक़ाबला कर सके, इसी तरह अल्लाह अपने फ़ौजी की तरबियत करता है।

वक़्त की पाबन्दी

ये महीना हमें वक़्त की अहमियत और वक़्त की पाबन्दी करना सिखाता है। सहर व इफ़्तार में हम एक एक मिनट देखते रहते हैं। सारे काम इस तरह करते हैं कि वक़्त पर इफ़्तार कर सकें। वक़्त की पाबन्दी की ये आदत हमें अपने बाक़ी मामलों और बाक़ी दिनों में भी इख़्तियार करनी चाहिये।

ये महीना हमारी ईमानी क़ुव्वत में इज़ाफ़ा करता है, हमें बुराइयों से लड़ने की ट्रेनिंग देता है, जिस तरह एक रोज़ेदार ख़ुद को बुराइयों से रोकता है उसी तरह उसे अपने समाज और मआशरे से बुराइयों को दूर करता है, रोज़ा ख़ैर और शर में तमीज़ करने की सलाहियत को परवान चढ़ाता है। वो हमें ख़ैर के काम करने पर उभारता है और बुरे कामों को रोकने की हिम्मत देता है।

रोज़ा हमें बुराइयों से लड़ने की क़ुव्वत देता है

आज हमारे समाज में क़दम-क़दम पर बुराइयां हैं, देश में नफ़रत और हसद हर दिन बढ़ रही है, शहरों में बर्दाश्त का माद्दा कम हो रहा है, रोज़ा हमें बुराइयों से लड़ने की क़ुव्वत देता है। वो हमरे अंदर सब्र और बर्दाश्त की सिफ़ात को परवान चढ़ाता है। मगर हम ग़ैर-शुअूरी तौर पर रोज़े की रस्म अदा करके सारे नतीजे ख़त्म कर देते हैं। अल्लाह नेक आमाल का बदला दुनिया में भी अता करता है। अगर हमारे अंदर नेक आमाल का पोज़िटिव नतीजा हमारी अपनी ज़िन्दगी और मआशरे पर दिखाई नहीं देता तो समझ लीजिये कि ये नेक काम अल्लाह की बारगाह में क़बूल न किये जाएंगे।

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